अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
सो चि॒न्नुभ॒द्रा क्षु॒मती॒ यश॑स्वत्यु॒षा उ॑वास॒ मन॑वे॒ स्वर्वती।यदी॑मु॒शन्त॑मुश॒तामनु॒ क्रतु॑म॒ग्निं होता॑रं वि॒दथा॑य॒ जीज॑नन् ॥
स्वर सहित पद पाठसो इति॑ । चि॒त् । नु । भ॒द्रा । क्षु॒ऽमती॑ । यश॑स्वती । उ॒षा: । उ॒वा॒स॒ । मन॑वे । स्व᳡:ऽवती । यत् । ई॒म् । उ॒शन्त॑म् । उ॒श॒तम् । अनु॑ । ऋतु॑म् । अ॒ग्निम् । होता॑रम् । वि॒दथा॑य । जीज॑नन् ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
सो चिन्नुभद्रा क्षुमती यशस्वत्युषा उवास मनवे स्वर्वती।यदीमुशन्तमुशतामनु क्रतुमग्निं होतारं विदथाय जीजनन् ॥
स्वर रहित पद पाठसो इति । चित् । नु । भद्रा । क्षुऽमती । यशस्वती । उषा: । उवास । मनवे । स्व:ऽवती । यत् । ईम् । उशन्तम् । उशतम् । अनु । ऋतुम् । अग्निम् । होतारम् । विदथाय । जीजनन् ॥१.२०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(सो) वही (चित्)निश्चय करके (नु) अब (भद्रा) कल्याणी, (क्षुमती) अन्नवाली, (यशस्वती) यशवाली, (स्वर्वती) बड़े सुखवाली [वेदवाणी], (उषाः) उषा [प्रभातवेला के समान], (मनवे)मनुष्य के लिये (उवास) प्रकाशमान हुई है। (यत्) क्योंकि (ईम्) इस [वेदवाणी] को (उशन्तम्) चाहनेवाले, (होतारम्) दानी (अग्निम्) विद्वान् पुरुष को (उशताम्)अभिलाषी पुरुषों की (क्रतुम् अनु) बुद्धि के साथ (विदथाय) ज्ञान समाज के लिये (जीजनन्) उन्होंने [विद्वानों ने] उत्पन्न किया है ॥२०॥
भावार्थ
परमात्मा ने मनुष्य केकल्याण के लिये वेदवाणी को सूर्य के प्रकाश के समान संसार में प्रकट किया है। जोमनुष्य वेदज्ञाता महाविद्वान् होवे, विद्वान् लोग उसको मुखिया बनाकर समाज का सुखबढ़ावें ॥२०॥
टिप्पणी
२०−(सो) सा-उ। सैव वेदवाणी (चित्) एव (नु) सम्प्रति (भद्रा) कल्याणी (क्षुमती) अन्नवती-निघ० २।७। (यशस्वती) कार्त्तिमती (उषाः) प्रभातवेलारूपावेदवाणी (उवास) वस-लिट्। प्रकाशं कृतवती (मनवे) मनुष्याय (स्वर्वती) सुखवती (यत्) यतः (ईम्) इमां वेदवाणीम् (उशन्तम्) कामयमानम् (उशताम्) कामयमानानाम्।अभिलाषिणाम् (अनु) अनुसृत्य (क्रतुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।६। (अग्निम्) विद्वांसम् (होतारम्) दातारम् (विदथाय) ज्ञानसमाजाय (जीजनन्) अजीजनन्। उदपादयन् तेविद्वांसः ॥
विषय
'भद्रा' उषा
पदार्थ
१. (सा उचित नु उषा) = और अब वह उषा निश्चय से (मनवे) = समझदार पुरुष के लिए (उवास) = उदित होती है अन्धकार को दूर करती है, जो उषा (भद्रा) = कल्याण व सुख देनेवाली है, (क्षमती) = [क्षु शब्दे] स्तुति के शब्दोंवाली है, जिस उषा में प्रबुद्ध होकर हम प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त होते हैं, (यशस्वती) = जो उषा हमारे लिए कीर्तिवाली है। हम उषा में ऐसे ही कर्मों को करें जो हमारी कीर्ति का कारण बनें- स्तवन-स्वाध्याय व यज्ञों' को ही करनेवाले हों। (स्वर्वती) = यह उषा प्रकाशवाली होती है। इस समय स्वाध्याय के द्वारा हम अपने अन्दर प्रकाश को बढ़ानेवाले हों। २, ऐसा उषाकाल हमारे लिए तभी उदित होता है (यत्) = जब हम (ईम्) = निश्चय से (उशन्तम्) = हमारे हित की कामनावाले (उशताम्) = उन्नति की कामनावाले पुरुषों के (अनु क्रतुम्) = संकल्प व पुरुषार्थ के अनुसार (अग्रिम्) = अग्रगति के साधक, (होतारम) = उन्नति के लिए आवश्यक सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले उस प्रभु को (विदथाय) = ज्ञान-प्राप्ति के लिए (जीजनन्) = अपने हृदयों में प्रादूर्भूत करते हैं।
भावार्थ
जब हम अपने हृदयों में उस प्रभु के प्रकाश को देखने का दृढ़ संकल्प तथा पुरुषार्थ करते हैं तभी हम प्रभु को देख पाते हैं। उसी समय हमारे लिए उषाकाल 'भद्र-क्षुमान् यशस्वान् व स्वर्वान होता है।
भाषार्थ
(चित्) ज्ञानमयी, (क्षुमती) मन्त्र-शब्दोंवाली, (भद्रा) कल्याणकारिणी, (उशस्वती) सब का कल्याण चाहनेवाली (सा) वह अदिति (१९) (नु) निश्चय से, और (उ) अवश्य, (मनवे) मनुष्यमात्र के लिये (उवास) अज्ञानान्धकार को दूर करती है। जैसे कि (स्वर्वती) द्युलोक में रहनेवाली (उषा) प्रातकालीन उषा, मनुष्यमात्र के लिये, रात्री के अन्धकार को दूर करती है, (यद्) जब कि (उशताम्) परमेश्वर को चाहनेवालों के (क्रतुम्) संकल्पों और कर्मों के (अनु) अनुसार, उन्हें (उशन्तम) चाहते हुए, (होतारम्) शक्तिप्रदाता (ईम अग्निम्) इस ज्योतिर्मय प्रभु को चाहनेवाले उपासक, – (विदथाय) साक्षात्कार के लिये (जीजनन्) प्रकट कर लेते हैं।
टिप्पणी
[अदिति = अनश्वर नित्या वेदवाणी। अभिप्राय यह है कि उपासक जब परमेश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं, तब ज्ञानमयी-प्रभुवाणी उनके अज्ञानान्धकार को विनष्ट कर देती है। अर्थात् जब तक परमेश्वर का साक्षात्कार नहीं होता, तब तक वैदिक रहस्य उन्हें प्रकट नहीं हो सकते। "वेद" शब्द का अर्थ है "ज्ञान"। इसी भाव को "चित्" द्वारा स्पष्ट किया है। उवास= (वस् अपहरणे, चुरादि)।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
(सा उ) वह वेदवाणी ही (चित् नु) निश्चय से (भद्रा) कल्याणकारिणी, सुखजनक, (क्षुमती) मन्त्रमय शब्द से युक्त (यशस्वती) वीर्यवाली (उषा) सर्व जगत् की प्रकाशक, उषा के समान सब पदार्थों को प्रकाश करने हारी (मनवे) मननशील पुरुष के लिये (स्वर्वती) अत्यन्त सुख और प्रकाशवती, ज्ञान देने हारी होकर (उवास) प्रकट होती है (यत्) क्योंकि विद्वान् पुरुष (उशताम्) नाना प्रकार की कामना करने वालों में से (ईम्) इस वेदवाणी की ही (उशन्तम्) कामना करने वाले (क्रतुम्) क्रियाशील (अग्निम्) ज्ञानवान्, (होतारम्) दूसरे को भी ज्ञान प्रदान करने हारे विद्वान् को (विदथाय) वेदवाणी के ज्ञान के लिये (जीजनन्) उत्पन्न करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Surely the illuminant, auspicious, abundant, brilliant, beatifying light of the dawn of divine vision arises when the sages invoke and kindle and raise the loving divine fire of Agni, high priest of divine-human communion, in accordance with the passion and devotion of the lovers of Divinity for the success of their meditative yajna.
Translation
She now, the excellent, rich in food, full of glory - the dawn hath shone for man full of light, since they have generated for the council (as) hotr Agni, the eager one, after the will of the eager ones.
Translation
N/A
Translation
Verily the Vedic speech, the well-wisher of mankind, replete with ennobling Vedic verses, full of moral vigor, the exhibitor of all objects like the Dawn, the imparter of knowledge, has been revealed for man. Out of those aspiring after various aims, the learned, for the acquisition of Vedic knowledge, bring forth him who is energetic, wise, magnanimous, and hankers after nothing but Vedic wisdom.
Footnote
See Rig, 10-11-3.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२०−(सो) सा-उ। सैव वेदवाणी (चित्) एव (नु) सम्प्रति (भद्रा) कल्याणी (क्षुमती) अन्नवती-निघ० २।७। (यशस्वती) कार्त्तिमती (उषाः) प्रभातवेलारूपावेदवाणी (उवास) वस-लिट्। प्रकाशं कृतवती (मनवे) मनुष्याय (स्वर्वती) सुखवती (यत्) यतः (ईम्) इमां वेदवाणीम् (उशन्तम्) कामयमानम् (उशताम्) कामयमानानाम्।अभिलाषिणाम् (अनु) अनुसृत्य (क्रतुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।६। (अग्निम्) विद्वांसम् (होतारम्) दातारम् (विदथाय) ज्ञानसमाजाय (जीजनन्) अजीजनन्। उदपादयन् तेविद्वांसः ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal