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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 32
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    52

    स्वावृ॑ग्दे॒वस्या॒मृतं॒ यदी॒ गोरतो॑ जा॒तासो॑ धारयन्त उ॒र्वी। विश्वे॑ दे॒वाअनु॒ तत्ते॒ यजु॑र्गुर्दु॒हे यदेनी॑ दि॒व्यं घृ॒तं वाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वावृ॑क् । दे॒वस्य॑ । अ॒मृत॑म् । यदि॑ । गो: । अत॑: । जा॒तास॑: । धा॒र॒य॒न्ते॒ । उ॒र्वी इति॑ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अनु॑ । तत् । ते॒ । यजु॑: । गु॒: । दु॒हे । यत् । एनी॑ । दि॒व्यम् । घृ॒तम् । वा: ॥१.३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वावृग्देवस्यामृतं यदी गोरतो जातासो धारयन्त उर्वी। विश्वे देवाअनु तत्ते यजुर्गुर्दुहे यदेनी दिव्यं घृतं वाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वावृक् । देवस्य । अमृतम् । यदि । गो: । अत: । जातास: । धारयन्ते । उर्वी इति । विश्वे । देवा: । अनु । तत् । ते । यजु: । गु: । दुहे । यत् । एनी । दिव्यम् । घृतम् । वा: ॥१.३२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 32
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    हिन्दी (4)

    विषय

    परमात्मा के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) जब कि (देवस्य)प्रकाशमय परमेश्वर का (अमृतम्) अमृत [जीवन सामर्थ्य] (गोः) पृथिवी के लिये (स्वावृक्) सहज में पाने योग्य है, (अतः) इसी [जीवन सामर्थ्य] से (जातासः)उत्पन्न हुए प्राणी (उर्वी) पृथिवी पर (धारयन्ते) [अपने को] रखते हैं। हेपरमात्मन् ! (विश्वे) सब (देवाः) विद्वान् लोग (ते) तेरे (तत्) उस (यजुः अनु)पूजनीय कर्म के पीछे (गुः) चलते हैं, (यत्) क्योंकि (एनी) चलनेवाली भूमि (दिव्यम्) श्रेष्ठ (घृतम्) सारयुक्त (वाः) वरणीय उत्तम पदार्थ (दुहे) भरपूरकरती है ॥३२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने प्राणियोंके पालन के लिये पृथिवी पर प्रकाश, वायु, जल, अन्न आदि अनेक पदार्थ स्वयं पानेयोग्य बनाये हैं, सब विद्वान् लोग परमेश्वर के नियमों को समझ कर संसार में अनेकलाभ उठाते हैं ॥३२॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१२।३ ॥

    टिप्पणी

    ३२−(स्वावृक्) सु+आङ्+वृजीवर्जने-क्विप्। सुष्ठु सहजेन आवर्जनीयमाहरणीयं ग्राह्यम् (देवस्य) प्रकाशमयस्यपरमेश्वरस्य (अमृतम्) अमरणम्। जीवनसामर्थ्यम् (यदि) यदा (गोः) चतुर्थ्यां षष्ठी।गवे। भूमये (अतः) अस्माद् अमृतात् (जातासः) उत्पन्नाः प्राणिनः (धारयन्ते)आत्मनं धारयन्ति (उर्वी) सप्तम्यां पूर्वसवर्णदीर्घः। ईदूतौ च सप्तम्यर्थे। पा०१।१।१९। इति प्रगृह्यम्। उर्व्याम्। पृथिव्याम् (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु) अनुसृत्य (तत्) (ते) तव (यजुः) अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७।यज पूजायाम्-उसि, नित्। पूजनीयं कर्म (गुः) गच्छन्ति (दुहे) तलोपः। दुग्धे।प्रपूरयति (यत्) यतः (एनी) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इण् गतौ-नि। एन्योनद्यः-निघ० १।१३। गमनशीला पृथिवी (दिव्यम्) श्रेष्ठम् (घृतम्) सारयुक्तम् (वाः)वारयतेः क्विप्। वरणीयं द्रव्यम् ॥

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    विषय

    'गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन' का सेवन

    पदार्थ

    १. मनुष्य (देवस्य) = दिव्यगुणों के पुज प्रभु का (स्वावृक)[स आवृज] = उत्तमता से आवर्जन करनेवाला होता है। एक मनुष्य का झुकाव प्रभु की ओर होता है (यत्) = जब (ई) = निश्चय से (गो: अमृतम्) = गौ का अमृत-तुल्य दुग्ध तथा (अत: जातास:) = इस पृथिवी से उत्पन्न वानस्पतिक पदार्थ [गौ भूमिः] (उर्वी) = इन द्यावापृथिवी को-मस्तिष्क व शरीर को (धारयन्त) = धारण करते हैं, अर्थात् जब एक मनुष्य गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजनों का सेवन करता है तब उसका शरीर व मस्तिष्क दोनों बड़े उत्तम बनते हैं और इस मनुष्य का झुकाव प्राकृतिक भोगों की ओर न होकर प्रभु की ओर होता है। २. (तत्) = तब (विश्वेदेवा:) = सब दिव्यगुण (ते यजुः) = तेरे सम्पर्क को [यज् संगतिकरणे] (अनु गु:) = अनुकूलता से प्रास होते हैं। प्रभु की ओर झुकाव होने पर दिव्यगुण प्रास होते हैं, (यत्) = क्योंकि (एनी) = यह (श्वेत) = शुद्ध-वेदवाणी (दिव्यम्) = अलौकिक-उत्कृष्टतम घृतम् ज्ञानदीप्ति को तथा (वाः) [वार्] = रोगों के निवारण को (दुहे) = पूरित करती है। वेदवाणी ज्ञान को तो प्राप्त कराती ही है, यह मनुष्य की वृत्ति को सुन्दर बनाकर, उसे वासनाओं से ऊपर उठाकर, नीरोग भी बनाती है। यह वरदा वेदमाता आयु: प्राणं' आयुष्य व प्राण को देनेवाली तो है ही।

    भावार्थ

    जब गोदुग्ध व वानस्पतिक भोजन हमारे शरीर व मस्तिष्क को धारण करते हैं तब हमारा झुकाव प्रभु की ओर होता है। उस समय हमें दिव्यगुण प्राप्त होते हैं और ज्ञान की वाणी हमें ज्ञानदीप्ति व नीरोगता प्राप्त कराती है।

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    भाषार्थ

    (यद् ई) जब उपासक (देवस्य) परमेश्वर देव की (गोः) वेदवाणी से (स्वावृग्) निज पापों का वर्जन कर लेते, और (अमृतम्) मोक्ष की या अनश्वर प्रभु को पा लेते हैं, तब (अतः) इस वेदवाणी से (जातासः) द्विजन्मारूप में पैदा हुए उपासक (उर्वी धारयन्ते) समग्र पृथिवी का धारण अपने सदुपदेशों द्वारा करते हैं। हे परमेश्वर ! तब वे (विश्व देवाः) सब देव (ते) आप के (यजुः) यज्ञकर्म के (अनु गुः) अनुगामी बन जाते हैं। (यद्) जब कि (एनी) विचित्रवर्णा अर्थात् विविध ज्ञानों का वर्णन करनेवाली वेदवाणी, उनके लिये (दिव्यं घृतं वाः) दिव्य घी और दिव्य जल (दुहे) दोहरूप में प्रदान करती है।

    टिप्पणी

    [स्वावृग् = स्वावृक् =स्व+आ+ वृज् (वर्जने)। गौः= वाक् (निघं० १।११)। यजुः = परमेश्वर का यज्ञकर्म है परोपकारार्थ सृष्टि का पालन। एनी = गौ। "दुहे" पद द्वारा भी एनी का अर्थ गौ प्रतीत होता है। दिव्यं घृत् वाः= वेदवाणी उपासक के वीर्य और रस-रक्त को दिव्य बना देती है, सात्त्विक बना देती है। घृत= रेतः बीर्य। यथा - "रेतः कृत्वाज्यं देवाः पुरुषमाविशन्" (अथर्व० ११।८।२९) वाः=आपः=रस-रक्त (अथर्व० १०।२।११)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (यदि) जब (देवस्य) प्रकाशमान (गोः) सूर्य से उत्पन्न (सु आवृक) उत्तम रीति से सबके मन को लुभानेवाले (अमृतम्) अमृतमय प्राण शक्ति को (अतः) इस लोक से (जातासः) उत्पन्न जीव (उर्वीम्) इस पृथ्वी पर (धारयन्ते) धारण करते हैं। और (यत्) जब (एनी) प्रकाशमयी द्यौ ही (दिव्यम्) दिव्य (घृतम्) सरणशील (वाः) जल को (दुहे) दोहती है (तत्) उसको ही (ते) वे (विश्वेदेवाः) समस्त देवगण (अनु यजुः) उसी की संगति लाभ करते और उसी के (अनु गुः) पीछे पीछे चलते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    When the celestial nectar of this refulgent power’s own essence radiates, then the energies generated by it support and sustain both earth and heaven, and all divinities of nature and humanity receive and celebrate these gifts of Agni, the divine beauty, radiance and liquid energies which the divine light showers upon them.

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    Translation

    If the god's immorality is easy to appropriate for the cow, thence those who are born maintain themselves on the broad (earth); all the gods go after that sacrificial formula of thine, when the hind yields the ghee, heavenly liquor. [Also Rg X.12.3].

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    Translation

    As the life-infusing power of God is easily available to the Earth; hence through it, the created beings sustain themselves on the Earth. O God, all learned persons follow that venerable act of Thine, as the revolving earth yields beautiful, invigorating, and excellent substances.

    Footnote

    It: Life-infusing power. See Rig, 10-12-3

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३२−(स्वावृक्) सु+आङ्+वृजीवर्जने-क्विप्। सुष्ठु सहजेन आवर्जनीयमाहरणीयं ग्राह्यम् (देवस्य) प्रकाशमयस्यपरमेश्वरस्य (अमृतम्) अमरणम्। जीवनसामर्थ्यम् (यदि) यदा (गोः) चतुर्थ्यां षष्ठी।गवे। भूमये (अतः) अस्माद् अमृतात् (जातासः) उत्पन्नाः प्राणिनः (धारयन्ते)आत्मनं धारयन्ति (उर्वी) सप्तम्यां पूर्वसवर्णदीर्घः। ईदूतौ च सप्तम्यर्थे। पा०१।१।१९। इति प्रगृह्यम्। उर्व्याम्। पृथिव्याम् (विश्वे) सर्वे (देवाः)विद्वांसः (अनु) अनुसृत्य (तत्) (ते) तव (यजुः) अर्त्तिपॄवपियजि०। उ० २।११७।यज पूजायाम्-उसि, नित्। पूजनीयं कर्म (गुः) गच्छन्ति (दुहे) तलोपः। दुग्धे।प्रपूरयति (यत्) यतः (एनी) वीज्याज्वरिभ्यो निः। उ० ४।४८। इण् गतौ-नि। एन्योनद्यः-निघ० १।१३। गमनशीला पृथिवी (दिव्यम्) श्रेष्ठम् (घृतम्) सारयुक्तम् (वाः)वारयतेः क्विप्। वरणीयं द्रव्यम् ॥

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