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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 59
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - पुरोबृहती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    42

    अङ्गि॑रोभिर्य॒ज्ञियै॒रा ग॑ही॒ह यम॑ वैरू॒पैरि॒ह मा॑दयस्व। विव॑स्वन्तं हुवे॒ यःपि॒ता ते॒ऽस्मिन्ब॒र्हिष्या नि॒षद्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अङ्गि॑र:ऽभि: । य॒ज्ञियै॑: । आ । ग॒हि॒ । इ॒ह । यम॑ । वै॒रू॒पै: । इ॒ह । मा॒द॒य॒स्व॒ । विव॑स्वन्तम् । हु॒वे॒ । य: । पि॒ता । ते॒ । अ॒स्मिन् । ब॒र्हिषि॑ । आ । नि॒ऽसद्य॑ ॥१.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अङ्गिरोभिर्यज्ञियैरा गहीह यम वैरूपैरिह मादयस्व। विवस्वन्तं हुवे यःपिता तेऽस्मिन्बर्हिष्या निषद्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अङ्गिर:ऽभि: । यज्ञियै: । आ । गहि । इह । यम । वैरूपै: । इह । मादयस्व । विवस्वन्तम् । हुवे । य: । पिता । ते । अस्मिन् । बर्हिषि । आ । निऽसद्य ॥१.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 59
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पितरों और सन्तानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम) हे संयमी जन ! (अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानी, (यज्ञियैः) पूजायोग्य पुरुषों के साथ (इह) यहाँ [समाज में] (आ गहि) तू आ, और (वैरूपैः) विविध पदार्थों के निरूपण करनेवाले वेदज्ञानों से (इह) यहाँ (मादयस्व) [हमें] तृप्त कर। (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) उत्तमपद पर (आ) भले प्रकार (निषद्य) बैठकर (विवस्वन्तम्) प्रकाशमय परमात्मा को (हुवे)मैं बुलाता हूँ, (यः) जो (ते) तेरा (पिता) पालक है ॥५९॥

    भावार्थ

    जितेन्द्रिय विद्वान्पुरुष विविध विद्वानों के सत्सङ्ग से अनेक विद्याएँ प्राप्त करके वेदाभ्यासद्वारा परमात्मा का विचार करें ॥५९॥मन्त्र ५९, ६० कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१४।५, ४ और दोनों मन्त्र महर्षिदयानन्दकृतसंस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरणमें उद्धृत हैं ॥

    टिप्पणी

    ५९−(अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानिभिः (यज्ञियैः) पूजार्हैः (आ गहि)आगच्छ (इह) अस्मिन् समाजे (यम) हे संयमिन् पुरुष (वैरूपैः) अ० १५।२।१६।विरूप-अण्। विविधपदार्थानां रूपं निरूपणं येभ्यः सकाशात् तैर्वेदज्ञानैः (इह) (मादयस्व) अस्मान् तर्पयस्व (विवस्वन्तम्) प्रकाशमयं परमात्मानम् (हुवे)आह्वयामि (यः) (पिता) पालकः (ते) तव (अस्मिन्) (बर्हिषि) उत्तमे पदे (आ)समन्तात् (निषद्य) उपविश्य ॥

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    विषय

    सत्संग व बासनाशून्य हृदय

    पदार्थ

    १.हे (यम) = संयमी जीवनवाले पुरुष! तू (इह) = इस जीवन में (अङ्गिरोभि:) = सदा क्रियाशील जीवनवाले और अतएव अंग-प्रत्यंग में रसवाले, (यज्ञियैः) = यज्ञशील व संगतिकरणयोग्य (वैरूपैः) = विशिष्ट तेजस्वीरूपवाले पितरों के साथ [मान्य पुरुषों के साथ] (इह) = यहाँ इस संसार में (आगहि) = आनेवाला हो-उनके साथ तेरा उठना बैठना हो और (मादयस्व) = उन्हीं के साथ तू आनन्द का अनुभव कर। २. तू (अस्मिन्) = इस जीवन में, (बर्हिषि) = [उद् बृह-उखाड़ना] वासनाशुन्य हृदय में-जिसमें से सब वासनाओं को उखाड़ दिया गया है (आनिषद्य) = स्थित होकर (विवस्वन्तं हुवे) = ज्ञान की किरणोंवाले उस प्रभु को पुकारनेवाला हो, (यः ते पिता) = जो तेरे पिता हैं। वस्तुतः हमें यही चाहिए कि हम अपने जीवन को यज्ञमय बनाएँ-हृदय को वासनाशून्य करें। इन्हीं में स्थित होकर प्रभु की उपासना करें।

    भावार्थ

    हमारा संग सदा उत्तम हो। जीवन में हम हदय को वासनाशून्य बनाकर वहाँ प्रभु का उपासन करनेवाले बने।

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    भाषार्थ

    (यम) हे आश्रम के नियन्ता ! आप, (यज्ञियैः) पूजनीय, (अङ्गिरोभिः) नाना विद्याओं के अङ्ग-प्रत्यङ्गों को जाननेवाले, (वैरूपैः) ज्ञानों या रूप रङ्ग की दृष्टि से विविध रूपोंवाले महात्माओं समेत, (इह) इस पितृयज्ञ में (आ गहि) आईये, पधारिये, और (मादयस्व) प्रस्तुत अन्नों द्वारा अपने आप को संतृप्त तथा संतुष्ट कीजिये। मैं गृहस्थी ने (विस्वन्तम्) अन्धकार-विनाशक सूर्य के सदृश अज्ञानान्धकार-विनाशक विज्ञानी को भी (हुवे) निमन्त्रित किया है, (यः) जो कि (पिता) हम सब का ज्ञानदाता पिता है। (ते) वे आप सब, (अस्मिन) इस (बर्हिषि) पितृयज्ञ में कुशासनों पर (आ निषद्य) विराजमान होकर अपने आप को संतृप्त तथा सन्तुष्ट कीजिये।

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (यज्ञियैः) यज्ञ के उपासक ! (अगिरोभिः) सूर्य के ब्रह्मज्ञानी, तेजस्वी पुरुष के साथ, हे (यम) नियन्ता वैज्ञानिक, राजन् ! (इह) इस लोक में (आगहि) तू आ, प्रकट हो। और (वैरूपैः) नाना रूपों से (इह) इस लोक में (मादयस्व) तू ही समस्त प्राणियों के सुख का कारण है। मैं उपासक (बर्हिषि) यज्ञ में या महान् ब्रह्म में या कुशासन पर (आ निषद्य) बैठकर उस (विवस्वन्तम्) नाना वसु-लोकों के स्वामी परमेश्वर को (हुवे) पुकारता हूँ, उसका स्मरण करता हूं जो (ते) तेरा भी (पिता) पालक पिता है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘अस्मिन् यज्ञे आ’ (प्र०) ‘अंगिरोभिरागहि यज्ञयेभिः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    O Yama, life time of health and age, come with nature’s pranic energies of various and versatile sort worthy of union and assimilation according to time and seasons, be happy and rejoice with me. I invoke the refulgent sun, your generative father, also to come and be seated at the holy heart core of this life yajna of mine for a full age of good health and happiness.

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    Translation

    Come thou hither with the worshipful Angirases; revel here, O Yama, with the Vairupas - I call Vivasvant, who is thy father sitting down upon this barhis. [Rg .14.5]

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    Translation

    O self-controlled person, come here in our Assembly with adorable highly learned persons, and satisfy us with Vedic knowledge, the expositor of various sciences. Nicely occupying an exalted position, I invoke God, thy Father.

    Footnote

    See Rig 10-14-5.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५९−(अङ्गिरोभिः) महाविज्ञानिभिः (यज्ञियैः) पूजार्हैः (आ गहि)आगच्छ (इह) अस्मिन् समाजे (यम) हे संयमिन् पुरुष (वैरूपैः) अ० १५।२।१६।विरूप-अण्। विविधपदार्थानां रूपं निरूपणं येभ्यः सकाशात् तैर्वेदज्ञानैः (इह) (मादयस्व) अस्मान् तर्पयस्व (विवस्वन्तम्) प्रकाशमयं परमात्मानम् (हुवे)आह्वयामि (यः) (पिता) पालकः (ते) तव (अस्मिन्) (बर्हिषि) उत्तमे पदे (आ)समन्तात् (निषद्य) उपविश्य ॥

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