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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 43
    ऋषिः - सरस्वती देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    34

    सर॑स्वति॒ यास॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॑हस्रा॒र्घमि॒डोअत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर॑स्वति । या । स॒ऽरथ॑म् । य॒याथ॑ । उ॒क्थै: । स्व॒धाभि॑: । दे॒वि॒ । पि॒तृऽभि॑: । मद॑न्ती । स॒ह॒स्र॒ऽअ॒र्घम् । इ॒ड: । अत्र॑ । भा॒गम् । रा॒य: । पोष॑म् ।यज॑मानाय । धे॒हि॒ ॥१.४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सरस्वति यासरथं ययाथोक्थैः स्वधाभिर्देवि पितृभिर्मदन्ती। सहस्रार्घमिडोअत्र भागं रायस्पोषं यजमानाय धेहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सरस्वति । या । सऽरथम् । ययाथ । उक्थै: । स्वधाभि: । देवि । पितृऽभि: । मदन्ती । सहस्रऽअर्घम् । इड: । अत्र । भागम् । राय: । पोषम् ।यजमानाय । धेहि ॥१.४३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 43
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सरस्वती के आवाहन का उपदेश।

    पदार्थ

    (सरस्वति) हे सरस्वती ! [विज्ञानवती वेदविद्या] (देवि) हे देवी ! [उत्तम गुणवाली] (या) जो तू (उक्थैः)वेदोक्त स्तोत्रों से (सरथम्) रमणीय गुणोंवाली होकर और (स्वधाभिः) आत्मधारणशक्तियों के सहित [विराजमान] (पितृभिः) पितरों [विज्ञानियों] के साथ (मदन्ती)तृप्त होती हुई (ययाथ) प्राप्त हुई है। सो तू (अत्र) यहाँ (इडः) विद्या के (सहस्रार्घम्) सहस्रों प्रकार पूजनीय (भागम्) भाग को और (रायः) धन की (पोषम्)वृद्धि को (यजमानाय) यजमान [विद्वानों के सत्कारी] के लिये (धेहि) दान कर ॥४३॥

    भावार्थ

    आत्मविश्वासी विज्ञानीलोग वेदविद्या प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं। सब मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग सेवेदविद्या ग्रहण करके धन आदि की वृद्धि करें ॥४३॥

    टिप्पणी

    ४३−(सरस्वति) हे विज्ञानवतिवेदविद्ये (या) या त्वम् (सरथम्) यथा भवति तथा। रमणीयगुणैः सह वर्तमाना सती (ययाथ) या प्रापणे-लिट्। प्राप्तासि (उक्थैः) वेदोक्तस्तोत्रैः (स्वधाभिः)आत्मधारणशक्तिभिः सह (देवि) हे उत्तमगुणवति (पितृभिः) पालनशीलैर्विज्ञानिभिः (मदन्ती) तृप्ता भवन्ती (सहस्रार्घम्) अर्ह पूजायाम्-घञ्, कुत्वम्। सहस्रप्रकारपूजनीयम् (इडः) इडायाः। विद्यायाः (अत्र) अस्मिन् संसारे (भागम्) अंशम् (रायः)धनस्य (पोषम्) वृद्धिम् (यजमानाय) संयोगकराय विदुषे (धेहि) धारय ॥

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    विषय

    सरस्वती का आराधक

    पदार्थ

    १. हे (सरस्वति) = ज्ञान की अधिष्ठात्री देवते! (यः) = जो तू (उक्थैः) = स्तोत्रों के साथ (सरथं ययाथ) = समान रथ में एक ही शरीररूप रथ में गतिवाली होती है। हे (देवि) = जीवन को प्रकाशमय बनानेवाली! तू (स्वधाभि:) = [स्व-धा] आत्मधारण-शक्तियों के साथ (पितृभिः) = तथा रक्षणात्मक कार्यों में व्याप्त लोगों के साथ (मदन्ती) = आनन्द का अनुभव करती है। ज्ञानी पुरुष अवश्य [क] प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाला बनता है [उक्थैः] । [ख] यह आत्मशक्ति को धारण करता है [स्वधाभिः]।[ग] पालनात्मक कार्यों में व्याप्त होता है [पितृभिः]।२. हे सरस्वति । तू (अत्र) = इस हमारे जीवन में (यजमानाय) = यज्ञशील पुरुष के लिए [यज्ञ-पूजा, संगतिकरण, दान] तेरा पूजन करनेवाले, तेरा संग करनेवाले व तेरे प्रति अपने को दे डालनेवाले के लिए (सहस्त्रार्घम्) = अनन्त मूल्यवाले–अमूल्य इस (इड: भागम्) = ज्ञान की वाणी के भजनीयांश को तथा (रायस्पोषम्) = जीवन-यात्रा के लिए आवश्यक धन का पोषण (धेहि) = धारण कर।

    भावार्थ

    सरस्वती का आराधक [१] प्रभुभक्त बनता है, [२] आत्मशक्ति का धारण करता है, [३] रक्षणात्मक कार्यों में प्रवृत्त होता है [४] वेदवाणी का अमूल्य ज्ञानधन प्रास करता है और [५] आवश्यक धन का पोषक होता है।

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    भाषार्थ

    (देवि) हे ज्ञानप्रदायिनी! (सरस्वति) ज्ञानमयी वेदवाणी ! (पितृभिः) माता-पिता आचार्य आदि पितरों द्वारा (मदन्ती) ज्ञान-विज्ञान का स्तवन करती हुई (या) जो तू, (उक्थैः) निज सूक्तों के साथ, और (स्वधाभिः) विविध लौकिक और परलौकिक अन्नों का ज्ञान देती हुई, (सरथम्) और इन ज्ञानों के साथ रमण करती हुई (ययाथ) हमें प्राप्त हुई है, वह तू (अत्र) इस जीवन में, (यजमानाय) तेरा यजन अर्थात् स्वाध्याय सङ्ग तथा ब्रह्मदान करनेवाले के लिये, (इडः) मन्त्रों में स्तुत (सहस्रार्घम) बहुमूल्य (भागम्) सेवनीय भाग, तथा (रायस्पोषम्) लौकिक और परलौकिक सम्पत्तियों का परिपोषण, (धेहि) स्थापित कर, प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [सरथम् = मानो एक रथ में सवार; in company with। ययाथ = या प्रापणे। पितृभिः = "जनको जननी चैव यश्च विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पंचैते पितरः स्मृताः"। मदन्ती=मद स्तुतौ। इडः= इळः ईट्टे स्तुतिकर्मणः (निरु० ८।२।८)।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    हे (सरस्वति) सरस्वति, रसकी भरी नदिया के समान या हे स्त्रि ! (या) जो तू (उक्थैः) सबसे कहने योग्य, प्रशंसनीय आत्मा के या गृहपति स्वरूप (स्वधाभिः) स्व=आत्मा को धारण करने वाले (पितृभिः) शरीर के पालक प्राणों के, या गृह के पालक बुजुर्गों के साथ (मदन्ती) हर्षित करती हुई या तृप्ति करती हुई (अत्र) इस शरीर या गृह में (इड़ः) अन्न के (सहस्रार्धम्) सहस्र गुणा मूल्य के (भागं) अंश को और (रायः पोषम्) धनकी वृद्धि को (यजमानाय) यजमान आत्मा के निमित्त (धेहि) प्रदान कर।

    टिप्पणी

    (च०) ‘यजमानेषु’ (प्र० द्वि०) ‘ययाथ स्वधाभिः’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Sarasvati, vibrant mother voice of Divinity who come with celestial joy in response to songs of adoration and oblations of holy fragrance, divine mother rejoicing with parental house-holders, pray come and bless the yajamana with food and energy, wealth, honour and excellence for body, mind and soul, a rightful share worth a thousand laudations.

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    Translation

    O Sarasvati, that wentest in company with the songs, with the svadhas, O goddess, reveling with the Fathers, assign thou to the sacrificer here a portion of refreshment of thousandfold value, abundance of wealth.

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    Translation

    O excellent Vedic knowledge, full of hymns noble teachings, and spiritual forces, hast thou come unto us, replete with merriment with the learned! Give in this world to the sacrificer plenteous wealth of thousand branches of valuable knowledge.

    Footnote

    See Rig, 10-17-9.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४३−(सरस्वति) हे विज्ञानवतिवेदविद्ये (या) या त्वम् (सरथम्) यथा भवति तथा। रमणीयगुणैः सह वर्तमाना सती (ययाथ) या प्रापणे-लिट्। प्राप्तासि (उक्थैः) वेदोक्तस्तोत्रैः (स्वधाभिः)आत्मधारणशक्तिभिः सह (देवि) हे उत्तमगुणवति (पितृभिः) पालनशीलैर्विज्ञानिभिः (मदन्ती) तृप्ता भवन्ती (सहस्रार्घम्) अर्ह पूजायाम्-घञ्, कुत्वम्। सहस्रप्रकारपूजनीयम् (इडः) इडायाः। विद्यायाः (अत्र) अस्मिन् संसारे (भागम्) अंशम् (रायः)धनस्य (पोषम्) वृद्धिम् (यजमानाय) संयोगकराय विदुषे (धेहि) धारय ॥

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