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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 54
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    38

    प्रेहि॒ प्रेहि॑प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः। उ॒भा राजा॑नौस्व॒धया॒ मद॑न्तौ य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒हि॒ । प्र । इ॒हि॒ । प॒थिऽभि॑: । पू॒:ऽयानै॑: । येन॑ । ते॒ । पूर्वे॑ । पि॒तर॑: । परा॑ऽइता: । उ॒भा । राजा॑नौ । स्व॒धया॑ । मद॑न्तौ । य॒मम् । प॒श्या॒सि॒ । वरु॑णम् । च॒ । दे॒वम् ॥१.५४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेहि प्रेहिपथिभिः पूर्याणैर्येना ते पूर्वे पितरः परेताः। उभा राजानौस्वधया मदन्तौ यमं पश्यासि वरुणं च देवम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इहि । प्र । इहि । पथिऽभि: । पू:ऽयानै: । येन । ते । पूर्वे । पितर: । पराऽइता: । उभा । राजानौ । स्वधया । मदन्तौ । यमम् । पश्यासि । वरुणम् । च । देवम् ॥१.५४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 54
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] तू (प्रइहि) आगे बढ़, (पूर्याणैः) नगरों को जानेवाले (पथिभिः) मार्गों से (प्र इहि) आगेबढ़, (येन) जिस [कर्म] से (ते) तेरे (पूर्वे) पहिले (पितरः) पितर [रक्षक पिताआदि महापुरुष] (परेताः) पराक्रम से गये हैं। और (स्वधया) अपनी धारण शक्ति से (मन्दन्तौ) तृप्त होते हुए (उभा) दोनों (राजानौ) शोभायमान, [अर्थात्] (देवम्)प्रकाशमान (यमम्) यम [न्यायकारी परमात्मा] को (च) और (वरुणम्) वरुण [श्रेष्ठजीवात्मा] को (पश्यासि) तू देखता रह ॥५४॥

    भावार्थ

    मनुष्य को योग्य है किपूर्व महात्माओं के वेदोक्त मार्ग पर चल कर देश-देशान्तरों में जाकर उन्नति करेऔर सदा परमात्मा की उपासना से जीवात्मा की दशा का चिन्तन करता रहे ॥५४॥मन्त्र५४, ५५ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१४।७, ९ और दोनों का ऋग्वेदपाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण में उद्धृत है ॥

    टिप्पणी

    ५४−(प्रोह)प्रकर्षेण गच्छ (प्रेहि) (पथिभिः) मार्गैः (पूर्याणैः) पुरो नगरान् (येन) कर्मणा (ते) तव (पूर्वे) पूर्वजा (पितरः) पालका महापुरुषाः (परेताः) पराक्रमेण गताः (उभा) उभौ (राजानौ) शोभायमानौ (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (मदन्तौ) तृप्यन्तौ (यमम्) न्यायकारिणं परमात्मानम् (पश्यासि) पश्येः (वरुणम्) श्रेष्ठं जीवात्मानम् (च) (देवम्) प्रकाशमानम् ॥

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    विषय

    'यम वरुण' [संयम-निद्वेषता]

    पदार्थ

    १. (येन) = जिस मार्ग से (ते) = तेरे (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले (पितर:) = रक्षक लोग (परेता:) = उत्कृष्टता से चले हैं तू भी उन (पूर्याणैः) = ब्रह्मपुरी की ओर ले-चलनेवाले (पथिभिः) = मागों से (प्रेहि) = चल और (प्रेहि) = अवश्य चलनेवाला बन। हम अपने बड़ों के उत्कृष्ट मार्ग का अनुसरण करनेवाले बनें। आचार्य विद्यार्थी को अन्तिम उपदेश यही तो देते हैं कि 'यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि'। २. तु (यमं पश्यासि) = अपने मार्गदर्शन के लिए यम को देख (च) = और (वरुणं देवम्) = वरुणदेव को देख । यम के जीवन की विशेषता 'जीवन का नियन्त्रण' है और 'वरुण' द्वेष का निवारण करनेवाला-द्वेषशून्य व सबके प्रति प्रेमपूर्ण। इनको देखने का अभिप्राय यह है कि हम भी 'द्वेषशून्य व नियन्त्रित जीवनवाले' बनें। (उभा) = ये दोनों 'नियन्त्रित जीवनवाला, व द्वेषशून्य व्यक्ति' (राजानौ) = चमकनेवाले होते हैं [राज दीसी]-इनका जीवन दीप्त होता है और (स्वधया मदन्तौ) = आत्मशक्ति के धारण से हर्ष का अनुभव करते हैं। 'यम' बनकर ये पूर्ण स्वस्थ होते हैं और परिणामत: स्वास्थ्य की दीसि से चमकते हैं तथा 'वरुण' निर्दृष होने के कारण ये अपने हृदय में आत्मप्रकाश देखते हैं और इसप्रकार आत्मशक्ति को धारण करते हुए आनन्दित होते हैं।

    भावार्थ

    हमारा मार्ग वही हो जो हमारे धार्मिक पितरों का है-हमारे जीवन में कुलधर्म नष्ट न हो जाए। हम यम और वरुण के मार्ग से चलते हुए संयम से स्वस्थ जीवन की दीसि वाले बनें और निढेषता से पवित्र हृदय होकर आत्मप्रकाश को देखते हुए आनन्दित हों।

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    भाषार्थ

    वानप्रस्थ धारण करनेवाले को कहा जाता है कि (प्रेहि) जा, (पूर्याणैः) नागरिक-रथों द्वारा (पथिभिः) तथा नागरिक मार्गों द्वारा (प्रेहि) जा, (येन) जिस या जिन मार्गों द्वारा (ते) तेरे (पूर्वे पितरः) पिता पितामह आदि अगले-अगले आश्रमों में (परेताः) गए हैं। वहां तू (यमं देवम्) यम देव का (च) और (वरुणं देवम्) वरुणदेव का (पश्यासि) दर्शन करेगा, जो (उभा) दोनों कि (राजानौ) उस-उस आश्रम के राजा हैं, और (स्वधया) अपने-अपने स्वाभाविक धारण-सामर्थ्य द्वारा (मदन्तौ) कान्तिमान् हैं, शोभायमान हैं।

    टिप्पणी

    [परेताः = देखो मन्त्रसंख्या (५०)। राजानौ = प्रत्येक आश्रम के राजा, अर्थात् अपने-अपने आश्रम के कुलपति। स्वधया= स्व +धा (धारणे)-तृतीयैकवचन। मदन्तौ = मद कान्ति (शोभा)। यमं वरुणम् = अथर्ववेद ब्रह्मचर्य सूक्त में आचार्य को "मृत्यु और वरुण" कहा है। यथा - आचार्यो मृत्युर्वरुणः (अ० ११।५।१४)। मन्त्र में "मृत्यु" शब्द द्वारा "यम" अर्थ अभिप्रेत है। और "वरुण" शब्द द्वारा "वरण करनेवाला परमेश्वर" अभिप्रेत है। यथा - अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद्यदैच्छत्प्रजापतौ। (अथर्व० ११।५।१५)। अर्थात् "वरुण" आचार्य बनकर ब्रह्मचर्याश्रम रूपी घर (अमा= गृह, निघं० ३।४) में ब्रह्मचारी को वह ज्ञानघृत पिलाता है, जो कि उसे गृहस्थाश्रम में अपेक्षित है।" मृत्यु अर्थात् यम-आचार्य का निज स्वाभाविक रूप है, और वरुण परमेश्वर का रूप है। मृत्यु का अभिप्राय है कि आचार्य अपने आश्रम के कड़े नियमों द्वारा ब्रह्मचारी में आमूलचूल परिवर्तन कर, उसके पूर्वरूप को विनष्ट कर उसे दूसरा जन्म देकर द्विजन्मा बना देता है। तदनन्तर ब्रह्मचारी आचार्य में स्थित जो वरुणरूप है उसका दर्शन पा लेता है। प्रत्येक आश्रम में कोई न कोई आचार्य होता है, और प्रत्येक आश्रम के आचार्य के दो रूप होने चाहियें- मृत्युरूप और वरुणरूप। वानप्रस्थ और संन्यास आश्रमों के भी आचार्यों के ये दो रूप होने चाहियें। ये दो रूप उस-उस आश्रम के राजा हैं, कुलपति हैं। परमेश्वर निज वरुणरूप में आचार्य में विद्यमान है, जो कि द्विजन्मा का "वरण" करके उसे निज स्वरूप का प्रत्यक्ष करवाता है। यथा - "यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्‌ ॥" (कठ० १।२।२२; मुण्डक ४।२।३)। वृणुते इति वरुणः।]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! तू (पूर्याणैः) पुर को जाने वाले मार्गों के समान पूर्ण ब्रह्म तक पहुँचा देनेवाले उन (पथिभिः) मार्गों से (प्र-इहि, प्र-इहि) नित्य आगे बढ़ (येन) जिनसे (ते) तेरे (पूर्वे पितरः) पूर्व के गोत्रपरिपालक, पूर्व पुरुषा (परेताः) चल गये हैं। तू (उभौ) दोनों (राजानौ) प्रकाशमान (स्व-धया मदन्तौ) अपनी धारण शक्ति अमृतमयी चेतना से आनन्द करते हुए (यमम्) सर्वनियामक यमस्वरूप और (वरुणम्) वरण करने योग्य सबसे श्रेष्ठ परमात्मा (देवम्) देव को भी (पश्यति) देख सकता है।

    टिप्पणी

    ‘पथिभिः पूर्व्येभिर्यत्रानः पूर्व पितरः परेयुः।’ (तृ०) ‘राजानो’, ‘मदन्ता’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Go forward, O man, move on by the paths of life earlier and universally carved for you, paths by which the ancients too went forward to complete their course of life. Intelligent you are and you see both Yama and Varuna, divine sun and divine night, all- comprehending time and the spirit of cosmic judgement, the solar region and the cosmic waters, both divine, brilliant, ecstatic, ruling strong in terms of their own powers, and agreeable by your service to them and to the environment.

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    Translation

    Go thou forth, go forth by roads that go to the stronghold, as thy Fathers of old went forth; both kings, reveling with svadha, shall thou see, Yama and god Varuna.

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    Translation

    O man, go forth, go forth upon the pathways that lead to God, whither our sires of old have gone before us. Then shalt thou look on both the Refulgent God, and noble soul both enjoying in their lustrous, mature strength !

    Footnote

    See Rig, 10-14-7.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५४−(प्रोह)प्रकर्षेण गच्छ (प्रेहि) (पथिभिः) मार्गैः (पूर्याणैः) पुरो नगरान् (येन) कर्मणा (ते) तव (पूर्वे) पूर्वजा (पितरः) पालका महापुरुषाः (परेताः) पराक्रमेण गताः (उभा) उभौ (राजानौ) शोभायमानौ (स्वधया) स्वधारणशक्त्या (मदन्तौ) तृप्यन्तौ (यमम्) न्यायकारिणं परमात्मानम् (पश्यासि) पश्येः (वरुणम्) श्रेष्ठं जीवात्मानम् (च) (देवम्) प्रकाशमानम् ॥

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