अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 39
ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
44
स्ते॒गो नक्षामत्ये॑षि पृथि॒वीं म॒ही नो॒ वाता॑ इ॒ह वा॑न्तु॒ भूमौ॑। मि॒त्रो नो॒ अत्र॒वरु॑णो यु॒ज्यमा॑नो अ॒ग्निर्वने॒ न व्य॑सृष्ट॒ शोक॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्ते॒ग: । न । क्षाम् । अति॑ । ए॒षि॒ । पृ॒थि॒वीम् । म॒ही इति॑ । न॒:। वाता॑: । इ॒ह । वा॒न्तु॒ । भूमौ॑ । मि॒त्र: । न॒: । अत्र॑ । वरु॑ण: । यु॒ज्यमा॑न: । अ॒ग्नि: । वने॑ । न । वि । अ॒सृ॒ष्ट॒ । शोक॑म् ॥१.३९॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तेगो नक्षामत्येषि पृथिवीं मही नो वाता इह वान्तु भूमौ। मित्रो नो अत्रवरुणो युज्यमानो अग्निर्वने न व्यसृष्ट शोकम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्तेग: । न । क्षाम् । अति । एषि । पृथिवीम् । मही इति । न:। वाता: । इह । वान्तु । भूमौ । मित्र: । न: । अत्र । वरुण: । युज्यमान: । अग्नि: । वने । न । वि । असृष्ट । शोकम् ॥१.३९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
[हे राजन् !] (स्तेगःन) संग्रहकर्ता पुरुष के समान (क्षाम्) निवास देनेवाली (पृथिवीम् अति) पृथिवीपर (एषि) तू चलता है, (वाताः) वायुओं [के समान वेगवाले पुरुष] (इह) यहाँ पर [राज्य में] (नः) हमारे लिये (मही) बड़ी (भूमौ) भूमि पर (वान्तु) चलें। (अत्र)यहाँ पर (नः) हमारे (युज्यमानः) मिलते हुए (वरुणः) श्रेष्ठ (मित्रः) मित्र [आप]ने (शोकम्) प्रताप को (वि) दूर-दूर (असृष्ट) फैलाया है, (अग्निः न) जैसे आग (वने) वन में [ताप फैलाता है] ॥३९॥
भावार्थ
राजा को योग्य है किबहुत धन का संग्रह करके राज्य की रक्षा करे और प्रजागणों को उद्योगी बना करशत्रुओं को मारे ॥३९॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।३१।९। और वहाँ [विश्वेदेवाः] देवता हैं ॥
टिप्पणी
३९−(स्तेगः) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। स्त्यैशब्दसंघातयोः-ग प्रत्ययः। पृषोदरादिरूपम्। संग्रहकर्ता पुरुषः (न) यथा (क्षाम्)अन्येष्वपिदृश्यते। पा० ३।२।१०१। क्षि निवासगत्योः-ड प्रत्ययः, टाप्।निवासयित्रीम् (अति) प्रति (एषि) गच्छसि (पृथिवीम्) पृथिवीराज्यम् (मही)सप्तम्याम् ईकारः। मह्याम्। महत्याम् (नः) अस्मभ्यम् (वाताः) वायव इवशीघ्रगामिनः पुरुषाः (इह) अत्र राज्ये (वान्तु) गच्छन्तु (भूमौ) (मित्रः)मित्रभूतो राजा (नः) अस्माकम् (अत्र) राज्ये (वरुणः) श्रेष्ठः (युज्यमानः)संगच्छमानः (अग्निः) पावकः (वने) वृक्षसमूहे (न) इव (वि) विविधम्। अतिदूरम्। (असृष्ट) सृज विसर्गे-लुङ्। विस्तारितवान् (शोकम्) प्रतापम् ॥
विषय
हृदय में प्रभु का उपासन व दीप्त जीवन
पदार्थ
१. (स्तेग:) = [स्त्यायते Spread about] हे प्रभो! चारों ओर व्याप्त होते हुए आप इस (क्षाम्) [क्षि-निवासे] = हमारी निवासस्थानभूत (पृथिवीम्) = शरीररूप पृथिवी को (न अति एषि) = कभी लाँधकर नहीं जाते हो। आपका सर्वश्रेष्ठ निवासस्थान [परम व्योम] हमारा हृदय ही होता है। हम सदा हृदय में आपका स्मरण करें। ऐसा करने पर (इह भूमौ) = यहाँ पृथिवी पर (न:) = हमारे लिए (मही वात:) = महत्त्वपूर्ण-हमें शक्ति देनेवाली वायुएँ (वान्तु) = बहें। हमारे लिए सारा वातावरण बड़ा अनुकूल हो। २. (मित्र:) = वह सबके प्रति स्नेह करनेवाला, (वरुण:) = द्वेष का निवारण करनेवाला प्रभु (युज्यमान:) = योग द्वारा सम्पृक्त होता हुआ (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (न:) = हमारे लिए (शोकम्) = दीप्ति को (व्यसृष्ट) = विशेषरूप से उत्पन्न करता है, उसीप्रकार (न) = जैसेकि [न-इव] (अग्निः) = बने-अग्नि वन में वनाग्नि को उत्पन्न करके विशिष्ट दीति उत्पन्न करता है।
भावार्थ
सर्वव्यापक होते हुए भी प्रभु हमारे हृदयों में विशेषरूप से उपासनीय होते हैं। उस समय हमारा सारा वातावरण बड़ा सुन्दर बनता है। प्रभु का उपासक जब स्नेह व निद्वेषतावाला बनता है तब उसका हृदय प्रभु-दीप्ति से दीप्त हो उठता है।
भाषार्थ
(स्तेगः न) हरिण जैसे (अति) बाधाओं का अतिक्रमण करके (क्षां पृथिवीम्) निज निवासस्थान को प्राप्त करता है, वैसे आप हमारे अन्तरायों का (अति) अतिक्रमण करके (एषि) हमें प्राप्त हों। आप की कृपा से, (नः) हमारे लिये, (इह) इस (मही भूमौ) महाभूमि में (वाताः) सुखकर वायुएं (वान्तु) बहें। (युज्यमानः) योगविधि द्वारा युक्त किया गया (मित्रः) सर्व-मित्र और (वरुणः) सर्वश्रेष्ठ परमेश्वर, (नः) हमारे (अत्र) इन जीवनों में, (शोकम्) निज प्रकाश का (व्यसृष्ट) विसर्जन करे, (नः) जैसे कि (अग्निः) आग (वने) वन में (शोकं व्यसृष्ट) प्रकाश का विसर्जन करती है [स्तेग = stag (हरिण)। व्यसृष्ट = विसर्जन, विशेष सर्जन।]
विषय
सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।
भावार्थ
हे परमात्मन् ! (स्तेगः न) गर्जन करता हुआ मेघ या सूर्य या तीव्रगामी वेग से जानेवाला हरिण जिस प्रकार (पृथिवीम्) बड़ी भारी (क्षाम्) पृथिवी को पार करता हुआ चला जाता है, उसी प्रकार तु भी इस (पृथिवीम् क्षाम्) विशाल जीवों के निवास योग्य संसार पदवी को (अति एषि) लांघ कर बैठा है। चाहे (इह) इस (भूमौ) लोक में (नः) हमारे लिये (मही वाताः) बड़े बड़े प्रचण्ड वायु चलें। (नः) तो भी हमारा (वरुणः) वरुण, सर्वश्रेष्ठ और सब दुःखों का वारक (मित्रः) सर्व स्नेही परमेश्वर (युज्यमानः) समाधि द्वारा साक्षात् होकर (वने अग्निः न) वन में दहकनेवाले अग्नि के समान (शोकम्) अपने परम तेज को (वि असृष्ट) नाना प्रकार से रचता है, प्रकट करता है। अर्थात् प्रचण्ड वायु के झकोरों में भी उस परमेश्वर के जलाये हुए ज्ञानदीपक कभी नहीं बुझते। स्तेगः=बहुत सम्भवत हरिण। अंग्रेज़ी में stag [स्टेग] इसी का अपभ्रंश हो।
टिप्पणी
(प्र०) ‘एति पृथ्वीम्’, ‘मिह न वातो विहवातिभूम’ (तृ०) ‘मित्रोयत्र’ ‘अज्यमानोग्नि’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory, Freedom and Security
Meaning
Just as the sun shines upon the earth and transcends, so do you, O Indra, ruler, rule the earth. Let pleasant winds blow upon the vast earth for us. Let Mitra, divine love, and Varuna, divine judgement, as sun and air, together, remove our pain and suffering as fire releases its heat in the forest and burns away unwanted undergrowth.
Translation
Thou goest over the earth as a steg over the ground; let winds blow here on the great earth for us; Mitra for us there (atra), Varuna, being joined hath let loose heat, as fire does in the forest.
Translation
N/A
Translation
O God, just as a swift deer runs trespassing the great earth, so dost Thou surpass this universe the abode of innumerable souls! Here on vast earth let breeze blow upon us. Thou, our Friend, the Extirpator of afflictions, obtainable through deep concentration (smadhi) spreadest Thy lustre in the universe in diverse ways, like fire in the forest.
Footnote
See Rig, 10-31-9, Steya has been interpreted as deer by k Jaidev Vidyalankara, frog by Sayana, as gatherer of Yajna’s materials by Pt. Kshem Karan Das Trivedi and Pt. Damodar Satvalekar. Griffith interprets it as a certain biting or stinging insect.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३९−(स्तेगः) मुदिग्रोर्गग्गौ। उ० १।१२८। स्त्यैशब्दसंघातयोः-ग प्रत्ययः। पृषोदरादिरूपम्। संग्रहकर्ता पुरुषः (न) यथा (क्षाम्)अन्येष्वपिदृश्यते। पा० ३।२।१०१। क्षि निवासगत्योः-ड प्रत्ययः, टाप्।निवासयित्रीम् (अति) प्रति (एषि) गच्छसि (पृथिवीम्) पृथिवीराज्यम् (मही)सप्तम्याम् ईकारः। मह्याम्। महत्याम् (नः) अस्मभ्यम् (वाताः) वायव इवशीघ्रगामिनः पुरुषाः (इह) अत्र राज्ये (वान्तु) गच्छन्तु (भूमौ) (मित्रः)मित्रभूतो राजा (नः) अस्माकम् (अत्र) राज्ये (वरुणः) श्रेष्ठः (युज्यमानः)संगच्छमानः (अग्निः) पावकः (वने) वृक्षसमूहे (न) इव (वि) विविधम्। अतिदूरम्। (असृष्ट) सृज विसर्गे-लुङ्। विस्तारितवान् (शोकम्) प्रतापम् ॥
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