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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
    ऋषिः - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त
    50

    यस्ते॑ अग्नेसुम॒तिं मर्तो॒ अख्य॒त्सह॑सः सूनो॒ अति॒ स प्र शृ॑ण्वे। इषं॒ दधा॑नो॒ वह॑मानो॒अश्वै॒रा स द्यु॒माँ अम॑वान्भूषति॒ द्यून् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽम॒तिम् । मर्त॑: । अख्य॑त् । सह॑स: । सू॒नो॒ इति॑ । अति॑ । स: । प्र । शृ॒ण्वे॒ । इष॑म् । दधा॑न: । वह॑मान: । अश्वै॑: । आ । स: । द्यु॒ऽमान् । अम॑ऽवान् । भू॒ष॒ति॒ । द्यून् ॥१.२४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते अग्नेसुमतिं मर्तो अख्यत्सहसः सूनो अति स प्र शृण्वे। इषं दधानो वहमानोअश्वैरा स द्युमाँ अमवान्भूषति द्यून् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । ते । अग्ने । सुऽमतिम् । मर्त: । अख्यत् । सहस: । सूनो इति । अति । स: । प्र । शृण्वे । इषम् । दधान: । वहमान: । अश्वै: । आ । स: । द्युऽमान् । अमऽवान् । भूषति । द्यून् ॥१.२४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे विद्वान् ! (यः मर्तः) जो मनुष्य (ते) तेरी (सुमतिम्) सुमति को (अख्यत्) बखानता है, (सहसःसूनो) हे बलवान् पुरुष के पुत्र ! (सः) वह (अति) अति (प्र) बड़ाई से (शृण्वे)सुना जाता है [यशस्वी होता है]। और (सः) वह (इषम्) अन्न (दधानः) रखता हुआ, (अश्वैः) घोड़ों से (वहमानः) ले जाता हुआ, (द्युमान्) प्रकाशमान और (अमवान्)पराक्रमी होकर (द्यून्) दिनों को (आ) सब प्रकार (भूषति) सुधारता है ॥२४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य कुलीन बलीविद्वानों की सुमति पर चलता है, वह यशस्वी, धनी और पराक्रमी होकर संसार का उपकारकरता है ॥२४॥

    टिप्पणी

    २४−(यः) (ते) तव (अग्ने) हे विद्वन् (सुमतिम्) उत्तमबुद्धिम् (मर्तः) मनुष्यः (अख्यत्) लडर्थे लुङ्। कथयति (सहसः) बलवतः पुरुषस्य (सूनो)पुत्र (अति) अत्यन्तम् (सः) (प्र) प्रकर्षेण (शृण्वे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा०७।१।४१। तलोपः, यणादेशः। शृणुते। श्रूयते। विश्रुतो भवति (इषम्) अन्नम् (दधानः)धारयन् (वहमानः) उह्यमानः (अश्वैः) तुरङ्गैः (आ) समन्तात् (सः) मर्तः (द्युमान्)दीप्तिमान् (अमवान्) बलवान् (भूषति) अलंकरोति (द्यून्) दिनानि-निघ० १।९ ॥

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    विषय

    द्युमान् अमवान्

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = [अगि गतौ, गति: ज्ञानम्] सर्वज्ञ व (सहसः सूनो) = बल के पुञ्ज सर्वशक्तिमन् प्रभो! (यः मर्तः) = जो मनुष्य (ते) = आपकी (सुमतिम्) = कल्याणी बुद्धि को (अख्यत्) = [कथयति] प्रतिपादित करता है-आपके किये हुए वेदज्ञान को प्रसारित करना है, (स:) = वह (अतिप्रशृण्वे) = सब लोकों में ख्याति प्राप्त करता है। वह अत्यन्त यशस्वी जीवनवाला होता है। २. (इषं दधान:) = प्रभु की प्रेरणा को धारण करता हुआ, (अश्वैः) = इन्द्रियाश्वों से (वहमान:) = उस प्रेरणा को क्रियारूप में लाता हुआ (स:) = वह पुरुष (आधुमान्) = सब ओर से प्रकाशमय जीवनवाला, अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञान की ज्योतिवाला तथा (अमवान्) = बलवाला होता हुआ (द्यून् भूषति) = अपने जीवन के दिनों को भूषित करता है।

    भावार्थ

    हम उस शक्तिपुञ्ज प्रभु की सुमति का प्रसार करते हुए कीर्तिमय जीवनवाले हो। प्रभु-प्रेरणा के अनुसार कार्यों को करते हुए 'शुमान् व अमवान्' बनें-ज्योतिर्मय व शक्तिशाली।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे ज्योतिर्मय ! (सहसः सूनो) हे बल के प्रेरक ! (यः) जो (मर्तः) मनुष्य (ते) आप की दी हुई (सुमतिम्) सुमति का (अख्यत्) सब के प्रति कथन करता है, (सः) वह (अति प्र शृण्वे) अति प्रसिद्ध हो जाता है, या लोग बहुत श्रद्धापूर्वक उस के कथन को सुनते हैं। (इषम्) आप की इच्छा को (दधानः) धारण करता हुआ, (अश्वैः) अश्वों से जुते रथ द्वारा यह सत्कारपूर्वक (वहमानः) ले जाया जाता है। (द्युमान्) शोभावाला, (अमबान्) तथा बलसम्पन्न (सः) वह (द्युन्) दिनों को (आभूषति) विभूषित करता है। [अमम् = वलम् (निरु० १०।२।२१)। अख्यत्= ख्या प्रकथने। सहस=बल (निघं० २।९)। सूनो = सू प्रेरणे]

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    विषय

    सन्तान के निमित्त पति-पत्नी का परस्पर व्यवहार।

    भावार्थ

    (अग्ने) प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (यः) जो (मर्त्तः) मरणधर्मा पुरुष (ते) तेरे (सुमतिम्) ज्ञान का (अख्यत्) दूसरों को उपदेश करता है, हे (सहसः सूनो) बल के उत्पन्न करने वाले परमेश्वर ! (सः) वह (अति) बहुत अधिक (प्र शृण्वे) सुना जाता है, प्रख्यात हो जाता है। वह पुरुष (इषम्) अन्न को (दधानः) धारण करता और (अश्वैः वहमानः) घोड़ों की सवारी करता है (सः) वह (द्युमान्) तेजस्वी और (अमवान्) बलवान् होकर (द्यून्) बहुत दिनों तक (भूषति) बना रहता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘अक्षत’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। यमो मन्त्रोक्ता वा देवताः। ४१, ४३ सरस्वती। ४०, रुद्रः। ४०-४६,५१,५२ पितरः। ८, १५ आर्षीपंक्ति। १४,४९,५० भुरिजः। १८, २०, २१,२३ जगत्यः। ३७, ३८ परोष्णिक्। ५६, ५७, ६१ अनुष्टुभः। ५९ पुरो बृहती शेषास्त्रिष्टुभ्। एकाशीयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Victory, Freedom and Security

    Meaning

    Agni, inspirer of power and patience, one who enjoys your good will, bears your light and wisdom and proclaims it,, wins the ear of his audience and rises to fame. Bearing and enjoying plenty and prosperity of food, energy and love, moving by horse drawn chariot he adds to the strength and splendour of his life and time.

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    Translation

    Whatever mortal hath seen thy favor, O Agni son of power, he is renowned exceedingly; acquiring food, bore by horses he lightful vigorous, passes the days

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    Translation

    Far-famed is he, the mortal man, O God! the Originator of power, who preaches Thy knowledge to others. He, gathering power, borne onward by his horses, in his splendor and might lives long for many days.

    Footnote

    See Rig, 10-11-7.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २४−(यः) (ते) तव (अग्ने) हे विद्वन् (सुमतिम्) उत्तमबुद्धिम् (मर्तः) मनुष्यः (अख्यत्) लडर्थे लुङ्। कथयति (सहसः) बलवतः पुरुषस्य (सूनो)पुत्र (अति) अत्यन्तम् (सः) (प्र) प्रकर्षेण (शृण्वे) लोपस्त आत्मनेपदेषु। पा०७।१।४१। तलोपः, यणादेशः। शृणुते। श्रूयते। विश्रुतो भवति (इषम्) अन्नम् (दधानः)धारयन् (वहमानः) उह्यमानः (अश्वैः) तुरङ्गैः (आ) समन्तात् (सः) मर्तः (द्युमान्)दीप्तिमान् (अमवान्) बलवान् (भूषति) अलंकरोति (द्यून्) दिनानि-निघ० १।९ ॥

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