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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 44
    सूक्त - पितरगण देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उदी॑रता॒मव॑र॒उत्परा॑स॒ उन्म॑ध्य॒माः पि॒तरः॑ सो॒म्यासः॑। असुं॒ य ई॒युर॑वृ॒का ऋ॑त॒ज्ञास्तेनो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ई॒र॒ता॒म् । अव॑रे । उत् । परा॑स: । उत् । म॒ध्य॒मा: । पि॒तर॑: । सो॒म्यास॑: । असु॑म् । ये । ई॒यु: । अ॒वृ॒का: । ऋ॒त॒ऽज्ञा: । ते । न॒: । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । हवे॑षु ॥१.४४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदीरतामवरउत्परास उन्मध्यमाः पितरः सोम्यासः। असुं य ईयुरवृका ऋतज्ञास्तेनोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । ईरताम् । अवरे । उत् । परास: । उत् । मध्यमा: । पितर: । सोम्यास: । असुम् । ये । ईयु: । अवृका: । ऋतऽज्ञा: । ते । न: । अवन्तु । पितर: । हवेषु ॥१.४४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 44

    पदार्थ -
    (अवरे) छोटे पदवाले (सोम्यासः) ऐश्वर्य के हितकारी, (पितरः) पितर [पालन करनेवाले विद्वान्] (उत्)उत्तमता से, (परासः) ऊँचे पदवाले (उत्) उत्तमता से और (मध्यमाः) मध्य पदवाले (उत्) उत्तमता से (ईरताम्) चलें। (ये) जिन (अवृकाः) भेड़िये वा चोर का स्वभाव नरखनेवाले, (ऋतज्ञाः) सत्य धर्म जाननेवाले [विद्वानों] ने (असुम्) प्राण [बल वाजीवन] (ईयुः) पाया है (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले] लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४४॥

    भावार्थ - प्रधान पुरुष कोचाहिये कि विद्या, कर्म और स्वभाव की योग्यता के अनुसार विद्वानों का सत्कारकरे, जिससे वे लोग सबकी रक्षा करने में सदा तत्पर रहें ॥४४॥मन्त्र ४४-४६ कुछभेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१५।१, ३, २ और यजुर्वेद में १९।४९, ५६, ६८ और महर्षिदयानन्दकृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका पितृयज्ञविषय में भी व्याख्यात हैं॥

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