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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 1/ मन्त्र 47
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    मात॑लीक॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒रृक्व॑भिर्वावृधा॒नः। यांश्च॑ दे॒वावा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वांस्ते नो॑ऽवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मात॑ली । क॒व्यै । य॒म: । अङ्गि॑र:ऽभि: । बृह॒स्पति॑: । ऋक्व॑ऽभि: । व॒वृ॒धा॒न: । यान् । च॒ । दे॒वा: । व॒वृ॒धु: । ये । च॒ । दे॒वान् । ते । न॒: । अ॒व॒न्तु॒ । पि॒तर॑: । हवे॑षु ॥१.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मातलीकव्यैर्यमो अङ्गिरोभिर्बृहस्पतिरृक्वभिर्वावृधानः। यांश्च देवावावृधुर्ये च देवांस्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मातली । कव्यै । यम: । अङ्गिर:ऽभि: । बृहस्पति: । ऋक्वऽभि: । ववृधान: । यान् । च । देवा: । ववृधु: । ये । च । देवान् । ते । न: । अवन्तु । पितर: । हवेषु ॥१.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 1; मन्त्र » 47

    पदार्थ -
    (मातली) ऐश्वर्य सिद्धकरनेवाला, (यमः) संयमी और (बृहस्पतिः) बृहस्पति [बड़ी विद्याओं का रक्षक पुरुष] (कव्यैः) बुद्धिमानों के हितकारी (अङ्गिरोभिः) विज्ञानी महर्षियों द्वारा (ऋक्वभिः) बड़ाईवाले कामों से (वावृधानः) बढ़नेवाला होता है। (च) और (यान्) जिन [पितरों] को (देवाः) विद्वानों ने (वावृधुः) बढ़ाया है, (च) और (ये) जिन [पितरों]ने (देवान्) विद्वानों को [बढ़ाया है], (ते) वे (पितरः) पितर [पालन करनेवाले]लोग (नः) हमें (हवेषु) संग्रामों में (अवन्तु) बचावें ॥४७॥

    भावार्थ - ऐश्वर्य चाहनेवालाजितेन्द्रिय पुरुष बड़े-बड़े विद्वानों के उपदेश और वेदादि शास्त्रों के मनन सेउन्नति करके संसार की रक्षा करें ॥४७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१४।३। और ऋग्वेद पाठ महर्षिदयानन्दकृत संस्कारविधि अन्त्येष्टिप्रकरण मेंउद्धृत है ॥

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