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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 11
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अप॑श्यं गो॒पाम॑नि॒पद्य॑मान॒मा च॒ परा॑ च प॒थिभि॒श्चर॑न्तम्। स स॒ध्रीचीः॒ स विषू॑ची॒र्वसा॑न॒ आ व॑रीवर्ति॒ भुव॑नेष्व॒न्तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑श्यम् । गो॒पाम् । अ॒नि॒ऽपद्य॑मानाम् । आ । च॒ । परा॑ । च॒ । प॒थिऽभि॑: । चर॑न्तम् । स: । स॒ध्रीची॑: । स: । विषू॑ची: । वसा॑न: । आ । व॒री॒व॒र्ति॒ । भुव॑नेषु । अ॒न्त: ॥१५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आ वरीवर्ति भुवनेष्वन्तः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपश्यम् । गोपाम् । अनिऽपद्यमानाम् । आ । च । परा । च । पथिऽभि: । चरन्तम् । स: । सध्रीची: । स: । विषूची: । वसान: । आ । वरीवर्ति । भुवनेषु । अन्त: ॥१५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    (गोपाम्) भूमि वा वाणी के रक्षक, (अनिपद्यमानम्) न गिरनेवाले [अचल], (पथिभिः) ज्ञानमार्गों से (आ चरन्तम्) समीप प्राप्त होते हुए (च) और (परा) दूर प्राप्त होते हुए (च) भी [परमेश्वर] को (अपश्यम्) मैंने देखा है। (सः) वह [परमेश्वर] (सध्रीचीः) साथ मिली हुई [दिशाओं] को और (सः) वही (विषूचीः) नाना प्रकार से वर्तमान [प्रजाओं] को (वसानः) ढकता हुआ (भुवनेषु अन्तः) लोकों के भीतर (आ) अच्छे प्रकार (वरीवर्ति) निरन्तर वर्तमान है ॥११॥

    भावार्थ - योगी जन सर्वव्यापी अन्तर्यामी परमेश्वर को सब स्थानों में बाहिर और भीतर साक्षात् करके सदा धर्म में लगे रहते हैं ॥११॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१।१६४।३१। और १०।१७७।३। तथा यजु० ३७।१७। तथा निरुक्त १४।३ ॥

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