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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    गौर॑मीमेद॒भि व॒त्सं मि॒षन्तं॑ मू॒र्धानं॒ हिङ्ङ॑कृणोन्मात॒वा उ॑। सृक्वा॑णं घ॒र्मम॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गौ: । अ॒मी॒मे॒त् । अ॒भि । व॒त्सम् । मि॒षन्त॑म् । मू॒र्धान॑म् । हिङ् । अ॒कृ॒णो॒त् । मात॒वै । ऊं॒ इति॑ । सृका॑णम् । घ॒र्मम् । अ॒भि । वा॒व॒शा॒ना । मिमा॑ति । मा॒युम् । पय॑ते । पय॑:ऽभि: ॥१५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गौरमीमेदभि वत्सं मिषन्तं मूर्धानं हिङ्ङकृणोन्मातवा उ। सृक्वाणं घर्ममभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गौ: । अमीमेत् । अभि । वत्सम् । मिषन्तम् । मूर्धानम् । हिङ् । अकृणोत् । मातवै । ऊं इति । सृकाणम् । घर्मम् । अभि । वावशाना । मिमाति । मायुम् । पयते । पय:ऽभि: ॥१५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (गौः) ब्रह्मवाणी ने (मिषन्तम्) आँखें मींचे हुए (वत्सम्) निवासस्थान [संसार] को (अभि) सब ओर (अमीमेत्) फैलाया और (मूर्धानम्) [लोकों से] बन्धन रखनेवाले [मस्तकरूप सूर्य] को (मातवै) बनाने के लिये (उ) निश्चय करके (हिङ्) तृप्ति कर्म (अकृणोत्) बनाया। वह [ब्रह्मवाणी] (सृक्काणम्) सृष्टिकर्ता (घर्मम्) प्रकाशमान [परमात्मा] की (अभि) सब ओर से (वावशाना) अति कामना करती हुई (मायुम्) शब्द (मिमाति) करती है और (पयोभिः) अनेक बलों के साथ (पयते) चलती है ॥६॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने प्रलय में लीन संसार को रचकर सूर्य आदि लोकों को परस्पर आकर्षण में ऐसा बनाया, जैसे मस्तक और धड़ होते हैं और उसी ब्रह्म शक्ति द्वारा प्राणियों को सब प्रकार का बल मिलता है ॥६॥ इस मन्त्र के उत्तर भाग का मिलान करो-अ० ९।१।८। (अभि) के स्थान पर [अनु] है−ऋ० १।१६४।२८। तथा निरु० ११।४२ ॥

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