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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 23
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अ॒पादे॑ति प्रथ॒मा प॒द्वती॑नां॒ कस्तद्वां॑ मित्रावरु॒णा चि॑केत। गर्भो॑ भा॒रं भ॑र॒त्या चि॑दस्या ऋ॒तं पिप॑र्त्यनृ॑तं॒ नि पा॑ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒पात् । ए॒ति॒ । प्र॒थ॒मा । प॒त्ऽवती॑नाम् । क: । तत् । वा॒म् । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । आ । चि॒के॒त॒ । गर्भ॑: । भा॒रम् । भ॒र॒ति॒ । आ । चि॒त् । अ॒स्या॒: । ऋ॒तम् । पिप॑र्ति । अनृ॑तम् । नि । पा॒ति॒ ॥१५.२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपादेति प्रथमा पद्वतीनां कस्तद्वां मित्रावरुणा चिकेत। गर्भो भारं भरत्या चिदस्या ऋतं पिपर्त्यनृतं नि पाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपात् । एति । प्रथमा । पत्ऽवतीनाम् । क: । तत् । वाम् । मित्रावरुणा । आ । चिकेत । गर्भ: । भारम् । भरति । आ । चित् । अस्या: । ऋतम् । पिपर्ति । अनृतम् । नि । पाति ॥१५.२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 23

    पदार्थ -
    (पद्वतीनाम्) प्रशंसित विभागोंवाली क्रियाओं में (प्रथमा) पहिली (अपात्) विना विभागवाली [सब के लिये एकरस वेदविद्या] (एति) चली आती है, (मित्रावरुणा) दोनों मित्रवरो ! [अध्यापक और शिष्य] (वाम्) तुम दोनों में (कः) किसने (तत्) उस [ज्ञान] को (आ) भले प्रकार (चिकेत) जाना है। (गर्भः) ग्रहण करनेवाला पुरुष (चित्) ही (अस्याः) इस [वेदविद्या] के (भारम्) पोषण गुण को (आ) अच्छे प्रकार (भरति) धारण करता है, (सत्यम्) सत्य व्यवहार को (पिपर्ति) पूर्ण करता है और (अनृतम्) मिथ्या कर्म को (नि) नीचे (पाति) रखता है ॥२३॥

    भावार्थ - आचार्य और ब्रह्मचारी वेदविद्या को यथावत् समझकर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके संसार में उन्नति करें ॥२३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१५२।३। मन्त्र का अर्थ सहर्ष महर्षिदयानन्द-भाष्य के आधार पर किया है ॥

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