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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 18
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्योम॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्ते॑ अ॒मी समा॑सते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒च: । अ॒क्षरे॑ । प॒र॒मे । विऽओ॑मन् । यस्मि॑न् । दे॒वा: । अधि॑ । विश्वे॑ । नि॒ऽसे॒दु: । य: । तत् । न । वेद॑ । किम् । ऋ॒चा । क॒रि॒ष्य॒ति॒ । ये । इत् । तत् । वि॒दु॒: । ते । अ॒मी इति॑ । सम् । आ॒स॒ते॒ ॥१५.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्ते अमी समासते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋच: । अक्षरे । परमे । विऽओमन् । यस्मिन् । देवा: । अधि । विश्वे । निऽसेदु: । य: । तत् । न । वेद । किम् । ऋचा । करिष्यति । ये । इत् । तत् । विदु: । ते । अमी इति । सम् । आसते ॥१५.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 18

    पदार्थ -
    (यस्मिन्) जिस (अक्षरे) व्यापक [वा अविनाशी] (परमे) सर्वोत्तम (व्योमन्) विविध रक्षक [वा आकाशवत् व्यापक] ब्रह्म में (ऋचः) वेदविद्याएँ और (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी सूर्य आदि लोक] (अधि) ठीक-ठीक (निषेदुः) ठहरे थे। (यः) जो [मनुष्य] (तत्) उस [ब्रह्म] को (न वेद) नहीं जानता, वह (ऋचा) वेदविद्या से (किम्) क्या [लाभ] (करिष्यति) करेगा, (ये) जो [पुरुष] (इत्) ही (तत्) उस [ब्रह्म] को (विदुः) जानते हैं (ते अमी) वे यही [पुरुष] (सम्) शोभा के साथ (आसते) रहते हैं ॥१८॥

    भावार्थ - परमेश्वर सब सत्य विद्याओं और लोकों का आधार है, विद्वान् लोग वेद द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त करके आनन्द भोगते हैं और मूर्ख लोग उस आनन्द को नहीं पाते ॥१८॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१।१६४।३९। तथा निरुक्त १३।१० ॥

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