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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 9
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    वि॒धुं द॑द्रा॒णं स॑लि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे युवा॑नं॒ सन्तं॑ पलि॒तो ज॑गार। दे॒वस्य॑ पश्य॒ काव्यं॑ महि॒त्वाद्य म॒मार॒ स ह्यः समा॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽधुम् । द॒द्रा॒णम् । स॒लि॒लस्य॑ । पृ॒ष्ठे । युवा॑नम् । सन्त॑म् । प॒लि॒त: । ज॒गा॒र॒ । दे॒वस्य॑ । प॒श्य॒ । काव्य॑म् । म॒हि॒ऽत्वा । अ॒द्य । म॒मार॑ । स: । ह्य: । सम् । आ॒न॒ ॥१५.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विधुं दद्राणं सलिलस्य पृष्ठे युवानं सन्तं पलितो जगार। देवस्य पश्य काव्यं महित्वाद्य ममार स ह्यः समान ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽधुम् । दद्राणम् । सलिलस्य । पृष्ठे । युवानम् । सन्तम् । पलित: । जगार । देवस्य । पश्य । काव्यम् । महिऽत्वा । अद्य । ममार । स: । ह्य: । सम् । आन ॥१५.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (सलिलस्य) समुद्र की (पृष्ठे) पीठ पर (सन्तम्) वर्तमान, (विधुम्) काम करनेवाले, (दद्राणम्) टेढ़े चलनेवाले (युवानम्) बलवान् पुरुष को (पलितः) पालनकर्ता [परमेश्वर] (जगार) निगल गया। (देवस्य) दिव्यगुणवाले [परमेश्वर] की (काव्यम्) चतुराई को (महित्वा) महत्त्व के साथ (पश्य) देख, (सः) वह [प्राणी] (अद्य) आज (ममार) मर गया [जो] (ह्यः) कल (सम् आन) जी रहा था ॥९॥

    भावार्थ - संसार सागर में दुराचारी बलवान् पुरुष को जगत्पालक परमेश्वर इस प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे समुद्र में बुदबुदा, सो परमात्मा की न्यायकारिता और अपने शरीर की अनित्यता विचार कर मनुष्य धर्म में सदा प्रवृत्त रहे ॥९॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।५५।५। साम० पू० प्र० ४ द० ४ म० ३। तथा उ० प्र० ९।१।७। और निरुक्त १४।१८। (सलिलस्य पृष्ठे) के स्थान पर सब में [समने बहूनाम्] है ॥

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