यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 18
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप्,
स्वरः - धैवतः
7
स॒ꣳस्र॒वभा॑गा स्थे॒षा बृ॒हन्तः॑ प्रस्तरे॒ष्ठाः प॑रि॒धेया॑श्च दे॒वाः। इ॒मां वाच॑म॒भि विश्वे॑ गृ॒णन्त॑ऽआ॒सद्या॒स्मिन् ब॒र्हिषि॑ मादयध्व॒ꣳ स्वाहा॒ वाट्॥१८॥
स्वर सहित पद पाठस॒ꣳस्र॒वभा॑गाः। स्थ॒। इ॒षा। बृ॒हन्तः॑। प्र॒स्तरे॒ष्ठाः। प॒रि॒धेयाः॑। च॒। दे॒वाः। इ॒माम्। वाच॑म्। अ॒भि। विश्वे॑। गृ॒णन्तः॑। आ॒सद्य॑। अ॒स्मिन्। ब॒र्हिषि॑। मा॒द॒य॒ध्व॒म्। स्वाहा॑। वाट् ॥१८॥
स्वर रहित मन्त्र
सँस्रवभागा स्थेषा बृहन्तः प्रस्तरेष्ठाः परिधेयाश्च देवाः । इमाँवाचमभि विश्वे गृणन्तऽआसद्यास्मिन्बर्हिषि मादयध्वँ स्वाहा वाट् ॥
स्वर रहित पद पाठ
सꣳस्रवभागाः। स्थ। इषा। बृहन्तः। प्रस्तरेष्ठाः। परिधेयाः। च। देवाः। इमाम्। वाचम्। अभि। विश्वे। गृणन्तः। आसद्य। अस्मिन्। बर्हिषि। मादयध्वम्। स्वाहा। वाट्॥१८॥
विषय - वह यज्ञ कैसे और किस प्रयोजन के लिए करना चाहिए, यह उपदेश किया है ॥
भाषार्थ -
हे (बृहन्तः !) स्वयं बढ़ते वाले तथा अन्यों को बढ़ाने वाले ! (प्रस्तरेष्ठाः !) शुभ न्याय-विद्या के आसन पर विराजमान और (परिधेयाः !) सब ओर से धारण करने योग्य ! (देवाः !) विद्वानो ! वा दिव्य पदार्थो ! तुम सब (इमाम्) इस प्रत्यक्ष (वाचम्) सब विद्याओं का उपदेश करने वाली वेदवाणी की (अभिगृणन्तः) स्तुति वा उपदेश करते हुए (इषा) ज्ञान के द्वारा (संस्रवभागाः) घृत आदि पदार्थों से होम करने वाले (स्थ) हो। तथा-- (स्वाहा) मधुर-वाणी से (वाट्) सुख प्राप्त कराने वाले कर्म्मों को (आसद्य) प्राप्त होकर (अस्मिन्) इस (बर्हिषि) वृद्धि को प्राप्त कराने वाले ज्ञान वा कर्म्म-काण्ड में (मादयध्वम्) हर्षित होओ, अन्य पुरुषों को भी इन लक्षणों से युक्त करके हर्षित करो।
इस प्रकार--इस यज्ञ में इस वेदवाणी का उपदेश करते हुए आप लोग ज्ञान से उत्तम सुख-कारक क्रियाओं को प्राप्त करके न्याय और विद्या के आसन पर विराजमान सब विद्वानों का सदा पालन करें, और उन्हें प्राप्त करके इस यज्ञ में सदा प्रसन्न रहें॥२।१८॥
भावार्थ -
ईश्वर आज्ञा देता है--जो धार्मिक और पुरुषार्थी मनुष्य वेद विद्या के प्रचार और उत्तम व्यवहार में सदा वर्तमान रहते हैं उन्हें ही बड़े-बड़े सुख प्राप्त होते हैं।
पहले मंत्र में अग्नि शब्द से जो ईश्वर और भौतिक अग्नि अर्थ का ग्रहण किया है, इस मन्त्र के द्वारा उनसे इस प्रकार के उपकार ग्रहण करने चाहियें, यह उपदेश किया है॥२।१८॥
भाष्यसार -
भाष्यसार--१. यज्ञ का प्रकार--वेद विद्या के ज्ञाता होने से सब से महान्, न्याय और विद्या के आसन पर विराजमान, विद्वान् लोग सत्य वेद विद्या का उपदेश करें। वेद विद्या का दान करना यज्ञ है। इस विद्या यज्ञ की बहती हुई धारा का विद्वान् लोग सेवन करते हैं, इस धारा में स्नान करते हैं।
२. यज्ञ का प्रयोजन--यज्ञ को वेदादि शास्त्रों ने श्रेष्ठ कर्म कहा है। यज्ञ-क्रिया से सब सुखों की प्राप्ति होती है। ज्ञान और कर्म के वर्धक इस यज्ञ से सब को हर्ष की प्राप्ति होती है। वेद विद्या वा उपदेश करने वाले विद्वानों का सम्मान, धारण और पोषण होता है। सर्वत्र हर्ष का संचार होता है॥२।१८॥
विशेष -
परमेष्ठी प्रजापतिः। विश्वेदेवाः=विद्वांसः॥ स्वराट् त्रिष्टुप्। धैवतः॥
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