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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
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    कृष्णो॑ऽस्याखरे॒ष्ठोऽग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ वेदि॑रसि ब॒र्हिषे॑ त्वा॒ जुष्टां॒ प्रोक्षा॑मि ब॒र्हिर॑सि स्रु॒ग्भ्यस्त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॒मि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृष्णः॑। अ॒सि॒। आ॒ख॒रे॒ष्ठः। आ॒ख॒रे॒स्थ इत्या॑खरे॒ऽस्थः। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वेदिः॑। अ॒सि॒। ब॒र्हिषे॑। त्वा॒। जुष्टा॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। ब॒र्हिः। अ॒सि॒। स्रु॒ग्भ्य इति स्रु॒क्ऽभ्यः। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णोस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टांम्प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णः। असि। आखरेष्ठः। आखरेस्थ इत्याखरेऽस्थः। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वेदिः। असि। बर्हिषे। त्वा। जुष्टाम्। प्र। उक्षामि। बर्हिः। असि। स्रुग्भ्य इति स्रुक्ऽभ्यः। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 1
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    भाषार्थ -

    जिससे यह यज्ञ (आखरेष्ठः) सब ओर से खुदे हुए वेदि-स्थान में स्थित होकर (कृष्णः) अग्नि से सूक्ष्म-रूप तथा वायु से आकर्षित [असि] है, इसलिए (त्वा) उस होम-सामग्री को मैं (अग्नये) हवन करने के लिए (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक (प्रोक्षामि) शुद्ध घृतादि से सींचता हूँ।

     जिस कारण से यह (वेदिः) सब सुखों को देने वाली वेदि अंतरिक्ष में स्थित  (असि) है, इसलिए मैं (त्वा) उस वेदिस्थ हवि को (बर्हिषे) अंतरिक्ष में पहुँचाने के लिए (जुष्टाम्) प्रीति से बनाई वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घृतादि से सींचता हूँ।

    जिससे यह (बर्हिः) शुद्ध जल  अन्तरिक्ष में स्थित होकर शुद्धि करने वाला होता है, इसलिए (त्वा) उस शुद्ध किए हुए (जुष्टम्) हवि को अथवा पुष्टि आदि गुणों से युक्त, प्रीतिकारक जल वा पवन को (स्रुगभ्यः) हवि देने के साधन स्रुवाओं से मैं (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूँ॥२।१॥

    भावार्थ -

    ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों से, वेदि रच कर, पात्र आदि साम्रगी को ग्रहण करके, अच्छी प्रकार शुद्ध की हुई उस हवि को अग्नि में होम करके किया हुआ यज्ञ, शुद्ध वर्षा जल से सब औषधियों को पुष्ट करता है।

    उस यज्ञ से सब प्राणियों को सुखी करो॥२।१॥

    भाष्यसार -

    . यज्ञ-- यह सब ओर से खोदे हुए हवन-कुण्ड में स्थित रहता है। यज्ञ में होम किए हुए पदार्थ अग्नि से सूक्ष्म रूप हो जाते हैं जिन्हें वायु आकृष्ट कर लेता है। वेदि अर्थात् वेदि में स्थित यज्ञ अन्तरिक्ष में स्थित हो जाता है। जिससे अन्तरिक्ष में स्थित जल एवं पवन शुद्ध होते हैं।

    . वेदि आदि की रचना-- इस उक्त यज्ञ के लिए वेदि बनावें तथा स्रुवा आदि अन्य यज्ञपात्रों की भी रचना करें।

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। निचृत्पंक्तिः। पंचमः॥

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