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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 8
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - विराट् ब्राह्मी पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    7

    अस्क॑न्नम॒द्य दे॒वेभ्य॒ऽआज्य॒ꣳ संभ्रि॑यास॒मङ्घ्रि॑णा विष्णो॒ मा त्वाव॑क्रमिषं॒ वसु॑मतीमग्ने ते छा॒यामुप॑स्थेषं॒ विष्णो॒ स्थान॑मसी॒तऽइन्द्रो॑ वी॒र्य्यमकृणोदू॒र्ध्वोऽध्व॒रऽआस्था॑त्॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्क॑न्नम्। अ॒द्य। दे॒वेभ्यः॑। आज्य॑म्। सम्। भ्रि॒या॒स॒म्। अङ्घ्रि॑णा। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। मा। त्वा॒। अव॑। क्र॒मि॒ष॒म्। वसु॑मती॒मिति॒ वसु॑ऽमतीम्। अ॒ग्ने॒। ते॒। छा॒याम्। उप॑। स्थे॒ष॒म्। विष्णोः॑। स्थान॑म्। अ॒सि॒। इ॒तः। इन्द्रः॑। वी॒र्य्य᳖म्। अ॒कृ॒णो॒त्। ऊ॒र्ध्वः। अ॒ध्व॒रः। आ। अ॒स्था॒त् ॥८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्कन्नमद्य देवेभ्यऽआज्यँ सम्भ्रियासमङ्घ्रिणा विष्णो मा त्वावक्रमिषँवसुमतीमग्ने ते छायामुपस्थेषँ विष्णो स्थानमसीतऽइन्द्रो वीर्यमकृणोदूर्ध्वा ध्वर आस्थात् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्कन्नम्। अद्य। देवेभ्यः। आज्यम्। सम्। भ्रियासम्। अङ्घ्रिणा। विष्णोऽइति विष्णो। मा। त्वा। अव। क्रमिषम्। वसुमतीमिति वसुऽमतीम्। अग्ने। ते। छायाम्। उप। स्थेषम्। विष्णोः। स्थानम्। असि। इतः। इन्द्रः। वीर्य्यम्। अकृणोत्। ऊर्ध्वः। अध्वरः। आ। अस्थात्॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 8
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    भाषार्थ -

    --(विष्णो!) हे सब में व्याप्त प्रभो! मैं (देवेभ्यः) दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए जो (अस्कन्मम्) स्थिर (आज्यम्) घृत आदि पदार्थ हैं, उनको (अङ्घ्रिणा) गति के साधन रूप अग्नि के द्वारा (संभ्रियासम्) अच्छे प्रकार धारण करूँ और (अद्य) आज (त्वा) उसका मैं (मा-अवक्रमिषम्) परित्याग न करूँ।

    हे (अग्ने!) परमेश्वर! वा भौतिक अग्नि! (ते) आपके वा उस अग्नि के (वसुमतीम्) बहुत वस्तुओं वाले (छायाम्) आश्रय को मैं (उप+स्थेषम्) प्राप्त होऊँ।

    जो यह अग्नि (विष्णोः) यज्ञ की (स्थानम्) स्थिति के लिए (असि) होता है, उस (वसुमतीम्) बहुत वस्तुओं वाले (छायाम्) आश्रय को भी प्राप्त करके यज्ञ को सिद्ध करूँ। और जो (ऊर्ध्वः) आकाश में स्थित होता हुआ (अध्वरः) अग्नि में हुत=हवन रूप यज्ञ (+अस्थात्) सब ओर स्थित होता है, उसको (इतः) इस स्थान से (इन्द्रः) सूर्य्य अथवा वायु धारण करके (वीर्यम्) वीर पुरुष का कर्म अथवा पराक्रम (अकृणोत्) बना देते हैं॥२।८॥

    भावार्थ -

    ईश्वर उपदेश करता है--जिस पूर्वोक्त यज्ञ से अन्न और जल शुद्ध एवं अधिक मात्रा में उत्पन्न होते हैं उस यज्ञ की सिद्धि के लिए मनुष्यों को बहुत सी यज्ञ सामग्री सदा जोड़नी चाहिए।

    मुझ व्यापक ईश्वर की इस आज्ञा का कभी उल्लंघन न करें। किन्तु-

    बहुत सुखों को प्राप्त कराने वाले मेरे आश्रय को लेकर अग्नि में जो यज्ञ किया जाता है,

    जिसे सूर्य अपनी किरणों से सूक्ष्म करके वायु की सहायता से ऊपर खैंच कर ऊपर ही मेघमण्डल में स्थापित करता है, फिर वहाँ से उसे भूमि पर गिराता है, जिससे भूमि में महान् शक्ति उत्पन्ल होती है, उस यज्ञ का सदा अुनष्ठान करना चाहिए॥२।८॥

    भाष्यसार -

    यज्ञ कैसा है-- मनुष्य दिव्य सुखों की प्राप्ति के लिए अग्नि में घृतादि पदार्थों का होम करें तथा यज्ञ सामग्री का पुष्कल संचय करें। यह परमेश्वर की आज्ञा है इसका उल्लंघन कभी न करें। ईश्वर की इस आज्ञा का पालन करने से बहुत सुखों को प्राप्त कराने वाली उसकी छाया प्राप्त होती है।

    विष्णु अर्थात् व्यापक यज्ञ का स्थित-स्थान अग्नि है। अग्नि का आश्रय भी बहुत वस्तुओं एवं सुखों को प्राप्त कराने वाला है। इस अग्नि से यज्ञ का अनुष्ठान करें।

    यज्ञ का फल--अग्नि में होम किए हुए घृतादि पदार्थ आकाश में मेघमण्डल में स्थित हो जाते हैं जिन्हें सूर्य वायु के सहयोग से धारण करता है और उन्हें वर्षा के रूप में भूमि पर वीर्य बनाकर बरसाता है। जिससे सब दिव्य गुणों से युक्त औषधि और वनस्पति उत्पन्न होती है॥

    विशेष -

    परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=यज्ञः। विराट् ब्राह्मी पंक्तिः। पञ्चमः॥

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