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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    सूक्त - आत्मा देवता - अनुष्टुप् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    द्वे ते॑ च॒क्रेसूर्ये॑ ब्र॒ह्माण॑ ऋतु॒था वि॑दुः। अथैकं॑ च॒क्रं यद्गुहा॒ तद॑द्धा॒तय॒इद्वि॒दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वे इति॑ । ते॒ । च॒क्रे इति॑ । सूर्ये॑ । ब्र॒ह्माण॑: । ऋ॒तु॒ऽथा । वि॒दु॒: । अथ॑ । एक॑म् । च॒क्रम् । यत् । गुहा॑ । तत् । अ॒ध्दातय॑: । इत् । वि॒दु: ॥१.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वे ते चक्रेसूर्ये ब्रह्माण ऋतुथा विदुः। अथैकं चक्रं यद्गुहा तदद्धातयइद्विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वे इति । ते । चक्रे इति । सूर्ये । ब्रह्माण: । ऋतुऽथा । विदु: । अथ । एकम् । चक्रम् । यत् । गुहा । तत् । अध्दातय: । इत् । विदु: ॥१.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. हे (सूर्य) = सूर्य के अनुकूल व्रतवाली कन्ये। (ते) = तेरे विषय में (द्वे चक्रे) = लगनेवाले दो चक्रों को तो (ब्रह्माण:) = सब ज्ञानी पुरुष (ऋतुथा विदः) = उस-उस समय के अनुसार जानते ही है। दहेज लेने के लिए आनेवाला चक्र और विवाह के लिए आनेवाला चक्र तो सबको पता लगता ही है। २. (अथ) = परन्तु (एकं चक्रम्) = पहला चक्र जबकि वरपक्ष के व्यक्ति पूछताछ के लिए अपने किसी मित्र के यहाँ आकर ठहरे, (गुहा) = जो चक्र संवृत-सा है, (तत्) = उस चक्र को तो (अद्धातयः इत्) = उस चक्र के ज्ञाता ही, अर्थात् उस चक्र में भाग लेनेवाले ही (विदुः) = जानते हैं। वर के माता पिता व उनके स्थानीय मित्र, जिनके यहाँ वे आकर ठहरते हैं, ही उस चक्र को जानते हैं। यह पूछताछ संवृत रूप में कर लेना ही व्यावहारिक दृष्टिकोण से ठीक है। 'अजी, वहाँ क्या बात ठहरी', इसप्रकार की चर्चाओं का न होना ही ठीक है।

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