अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 34
सूक्त - आत्मा
देवता - प्रस्तार पङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
अ॑नृक्ष॒राऋ॒जवः॑ सन्तु॒ पन्था॑नो॒ येभिः॒ सखा॑यो॒ यन्ति॑ नो वरे॒यम्। सं भगे॑न॒सम॑र्य॒म्णा सं धा॒ता सृ॑जतु॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒नृ॒क्ष॒रा: । ऋ॒जव॑: । स॒न्तु॒ । पन्था॑न: । येभि॑: । सखा॑य: । यन्ति॑ । न॒: । व॒रे॒ऽयम् । सम् । भगे॑न । सम् । अ॒र्य॒म्णा । सम् । धा॒ता । सृ॒ज॒तु॒ । वर्च॑सा ॥१.३४॥
स्वर रहित मन्त्र
अनृक्षराऋजवः सन्तु पन्थानो येभिः सखायो यन्ति नो वरेयम्। सं भगेनसमर्यम्णा सं धाता सृजतु वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठअनृक्षरा: । ऋजव: । सन्तु । पन्थान: । येभि: । सखाय: । यन्ति । न: । वरेऽयम् । सम् । भगेन । सम् । अर्यम्णा । सम् । धाता । सृजतु । वर्चसा ॥१.३४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 34
विषय - 'अनृक्षरा ऋजवः' पन्थाना:
पदार्थ -
१. कन्या के माता-पिता चाहते हैं कि हमारी कन्या के (पन्थान:) = मार्ग (अनुक्षरा:) = कण्टकरहित (ऋजव:) = सरल (सन्तु) = हों, अर्थात् यह पतिगृह में जाकर कण्टकरहित, कुटिलता से शून्य मार्गों से चलनेवाली हो। ये पतिगृह में कॉट बोनेवाली न बन जाए। यह उन मार्गों से चले, (येभिः) = जिनके कारण (सखायः) = उसके पति के मित्र भी (बरेयम्) = हमारी अन्य कन्याओं के वरण के लिए (नः यन्ति) = हमारे समीप प्राप्त होते हैं। २. कन्या पक्षवाले कामना करते हैं कि (धाता) = सबका धारण करनेवाला प्रभु हमारी कन्या को (संसृजतु) = ऐश्वर्यशाली, धन कमाने की योग्यता के साथ संसृष्ट करे। (अर्यम्णा सम्) = [अरीन् यच्छति] शत्रुओं का संयम करनेवाले काम-क्रोध को जीत लेनेवाले युवक के साथ संसृष्ट करे तथा (वर्चसा सम्) = शक्ति के पुञ्ज प्रभु के साथ संसृष्ट करे।
भावार्थ -
युवति के माता-पिता की कामना होती है कि हमारी कन्या पतिगृह में इसप्रकार कण्टकशून्य सरल मार्गों से चले कि वर के सभी मित्र हमारी अन्य कन्याओं को प्राप्त करने की कामनाबाले हों। हमारी कन्या को 'सौभाग्यसम्पन्न, संयमी, वर्चस्वी' पति प्राप्त हो।
इस भाष्य को एडिट करें