अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 48
सूक्त - आत्मा
देवता - पथ्यापङ्क्ति
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
येना॒ग्निर॒स्याभूम्या॑ हस्तं ज॒ग्राह॒ दक्षि॑णम्। तेन॑ गृह्णामि ते॒ हस्तं॒ मा व्य॑थिष्ठा॒मया॑ स॒ह प्र॒जया॑ च॒ धने॑न च ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । अ॒ग्नि: । अ॒स्या: । भूम्या॑: । हस्त॑म् । ज॒ग्राह॑ । दक्षि॑णम् । तेन॑ । गृ॒ह्णा॒मि॒ । ते॒ । हस्त॑म् । मा । व्य॒थि॒ष्ठा॒: । मया॑ । स॒ह । प्र॒ऽजया॑ । च॒ । धने॑न । च॒ ॥१.४८॥
स्वर रहित मन्त्र
येनाग्निरस्याभूम्या हस्तं जग्राह दक्षिणम्। तेन गृह्णामि ते हस्तं मा व्यथिष्ठामया सह प्रजया च धनेन च ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । अग्नि: । अस्या: । भूम्या: । हस्तम् । जग्राह । दक्षिणम् । तेन । गृह्णामि । ते । हस्तम् । मा । व्यथिष्ठा: । मया । सह । प्रऽजया । च । धनेन । च ॥१.४८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 48
विषय - प्रजया च धनेन च
पदार्थ -
१. राजा पृथिवीपति कहलाता है, मानो यह पृथिवी का दक्षिण हाथ ग्रहण करके उसे अपनी पत्नी बनाता है और उसका सम्यक् रक्षण करता है, उसीप्रकार एक युवक भी युवति के हाथ को ग्रहण करता हुआ कहता है कि अग्रि: राष्ट्र को आगे ले-चलनेवाला राजा (येन) = जिस हेतु से (अस्या: भूम्या:) = भूमि के-प्रजाओं के निवासस्थानभूत पृथिवी के (दक्षिणं हस्तं जग्राह) = दाहिने हाथ को ग्रहण करता है, (तेन) = उसी हेतु से मैं (ते हस्तं गृह्णामि) = तेरे हाथ का ग्रहण करता हूँ। तू (मा व्यथिष्ठा:) = पितृगृह से पृथक् होती हुई किसी भी प्रकार पीड़ित न हो, दु:खी न हो। तू (मया सह) = मेरे साथ (प्रजया च धनेन च) = प्रजा व धन के साथ सम्यक् निवासवाली होगी, उत्तम सन्तति को प्राप्त होगी और तुझे उनके पालन के लिए आवश्यक धन की कमी न रहेगी।
भावार्थ -
गृहस्थ युवक का कर्तव्य है कि घर में उत्तम सन्तति के पालन-पोषण के लिए आवश्यक धन की कमी न होने दे।
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