अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 24
सूक्त - चन्द्रमा
देवता - त्रिष्टुप्
छन्दः - सवित्री, सूर्या
सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त
नवो॑नवो भवसि॒जाय॑मा॒नोऽह्नां॑ के॒तुरु॒षसा॑मे॒ष्यग्र॑म्। भा॒गं दे॒वेभ्यो॒ विद॑धास्या॒यन्प्र च॑न्द्रमस्तिरसे दी॒र्घमायुः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनव॑ऽनव: । भ॒व॒सि॒ । जाय॑मान:। अह्ना॑म् । के॒तु:। । उ॒षसा॑म् । ए॒षि॒ । अग्र॑म् । भा॒गम् । दे॒वेभ्य॑: । वि । द॒धा॒सि॒ । आ॒ऽयन् । प्र । च॒न्द्र॒म॒: । ति॒र॒से॒ । दी॒र्घम् । आयु॑: ॥१.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
नवोनवो भवसिजायमानोऽह्नां केतुरुषसामेष्यग्रम्। भागं देवेभ्यो विदधास्यायन्प्र चन्द्रमस्तिरसे दीर्घमायुः ॥
स्वर रहित पद पाठनवऽनव: । भवसि । जायमान:। अह्नाम् । केतु:। । उषसाम् । एषि । अग्रम् । भागम् । देवेभ्य: । वि । दधासि । आऽयन् । प्र । चन्द्रम: । तिरसे । दीर्घम् । आयु: ॥१.२४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 24
विषय - पति
पदार्थ -
१. मानव-स्वभाव कुछ इस प्रकार का है कि वह एक वस्तु से कुछ देर पश्चात् ऊब जाता है। 'गृहस्थ में पति-पत्नी परस्पर ऊब न जाएँ, इस दृष्टिकोण से (जायमान:) = अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ तू [पति] (नव: नवः भवसि) = सदा नवीन बना रहता है। तेरा जीवन पुराना-सा [जीर्ण-सा] नहीं हो जाता। (अह्नां केतुः) = दिनों का तू प्रकाशक होता है दिनों को तू प्रकाशमय बनाता है। स्वाध्याय के द्वारा अधिकाधिक प्रकाशमय जीवनबाला होता है। (उषसां अग्नम् एषि) = उषाओं के अग्रभाग में आता है, अर्थात् बहुत सवेरे ही प्रबुद्ध होकर क्रियामय जीवनवाला होकर चलता है। २. तू (आयन्) = गतिशील होता हुआ (देवेभ्यः भागं विदधासि) = देवों के लिए भाग को विशेषरूप से धारण करता है, अर्थात् यज्ञशील बनता है। यज्ञों को करके यज्ञशेष का ही सेवन करता है। इसप्रकार हे (चन्द्रमः) = आहादमय जीवनवाले पते! तू (दीर्घं आयुः प्रतिरसे) = दीर्घ जीवन को अत्यन्त विस्तृत करता है। मन की प्रसन्नता तेरे दीर्घ जीवन का कारण बनती है।
भावार्थ -
पति अपनी शक्तियों का विकास करता हुआ सदा स्तुत्य [नव] जीवनवाला हो। दिन को ज्ञान के प्रकाश से उज्ज्वल बनाए, प्रात: जागरित होकर कार्यप्रवृत्त हो, यज्ञशील बने तथा प्रसन्न मनोवृत्तिवाला होता हुआ दीर्घ जीवन प्रास करे।
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