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  • अथर्ववेद - काण्ड 14/ सूक्त 1/ मन्त्र 38
    सूक्त - आत्मा देवता - पुरोबृहती त्रिपदा परोष्णिक् छन्दः - सवित्री, सूर्या सूक्तम् - विवाह प्रकरण सूक्त

    इ॒दम॒हं रुश॑न्तंग्रा॒भं त॑नू॒दूषि॒मपो॑हामि। यो भ॒द्रो रो॑च॒नस्तमुद॑चामि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । अ॒हम् । रुश॑न्तम् । ग्रा॒भम् । त॒नू॒ऽदूषि॑म् । अप॑ । ऊ॒हा॒मि॒ । य: । भ॒द्र: । रो॒च॒न: । तम् । उत् । अ॒चा॒मि॒ ॥१.३८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदमहं रुशन्तंग्राभं तनूदूषिमपोहामि। यो भद्रो रोचनस्तमुदचामि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । अहम् । रुशन्तम् । ग्राभम् । तनूऽदूषिम् । अप । ऊहामि । य: । भद्र: । रोचन: । तम् । उत् । अचामि ॥१.३८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 14; सूक्त » 1; मन्त्र » 38

    पदार्थ -

    १. (इदम्) = [इदानीम्] अब प्रभु की उपासना के अन्तर (अहम्) = मैं (रुशन्तम्) = नष्ट करनेवाले, (तनूषिम्) = शरीर को दूषित करनेवाले, (ग्राभम्) = शरीर को पकड़ लेनेवाले [जकड़ लेनेवाले] रोग को (अप ऊहामि) = शरीर से दूर करता हूँ। प्रभु की उपासना रेत:कणों के रक्षण के द्वारा हमें नीरोग बनाती है। २. रोगों को दूर करके (यः भद्रः रोचन:) = जो कल्याण व सुख देनेवाला, जीवन को दीप्त बनानेवाला व्यवहार है, (तम् उदचामि) = उसे उत्कर्षेण प्राप्त होता हूँ।

    भावार्थ -

    हम नीरोग बनकर कल्याण करनेवाले यशस्वी व्यवहारों में प्रवृत्त हों।

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