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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 10
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७

    स्तु॒ष्व व॑र्ष्मन्पुरु॒वर्त्मा॑नं॒ समृभ्वा॑णमि॒नत॑ममा॒प्तमा॒प्त्याना॑म्। आ द॑र्शति॒ शव॑सा॒ भूर्यो॑जाः॒ प्र स॑क्षति प्रति॒मानं॑ पृथि॒व्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तु॒ष्व । व॒र्ष्म॒न् । पु॒रु॒ऽवर्त्मा॑नम् । सम् । ऋभ्वा॑णम् । इ॒न॒त॑मम् । आ॒प्तम् । आ॒प्त्याना॑म् ॥ आ । द॒र्श॒ति॒ । शव॑सा । भूरि॑ऽओजा: । प्र । स॒क्ष॒ति॒ । प्र॒ति॒ऽमान॑म् । पृ॒थि॒व्या: ॥१०७.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तुष्व वर्ष्मन्पुरुवर्त्मानं समृभ्वाणमिनतममाप्तमाप्त्यानाम्। आ दर्शति शवसा भूर्योजाः प्र सक्षति प्रतिमानं पृथिव्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तुष्व । वर्ष्मन् । पुरुऽवर्त्मानम् । सम् । ऋभ्वाणम् । इनतमम् । आप्तम् । आप्त्यानाम् ॥ आ । दर्शति । शवसा । भूरिऽओजा: । प्र । सक्षति । प्रतिऽमानम् । पृथिव्या: ॥१०७.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. वेदमाता यह प्रेरणा देती है कि हे (वर्ष्मन्) = सुन्दर आकृतिवाले पुरुष! तू उस प्रभु का (संस्तुष्व) = सम्यक् स्तवन कर, जो (पुरुवानम्) = पालक व पूरक मागाँवाले हैं-प्रभु की ओर ले जानेवाले मार्ग कभी भी तुम्हारा विनाश नहीं करेंगे। (ऋभ्वाणम्) = [उरुभासमानम्] वे प्रभु खूब ही ज्ञान की दीप्तिवाले हैं। (इनतमम्) = सर्वमहान् स्वामी हैं। (आप्त्यानाम् आप्तम्) = विश्वसनियों में विश्वसनीय है। प्रभु का भरोसा करनेवाला कभी धोखा नहीं खाता। २. वे (भुर्योंजा:) = अनन्त ओजस्वी प्रभु शवसा बल के द्वारा (आदर्शति) = शत्रुओं को विदीर्ण करते हैं [द विदारणे]। (प्रसक्षति) = वे प्रभु ही शत्रुओं का पराभव करते है इनका मर्षण व विनाश करते हैं। वे (पृथिव्याः प्रतिमानम्) = सम्पूर्ण पृथिवी के प्रतिमान हैं-[adversary] सारे संसार की शक्ति भी प्रभु को पराभूत नहीं कर सकती। प्रभु को धारण करने से तुम भी सारे शत्रुओं का पराभव कर सकोगे।

    भावार्थ - वेदमाता की अपने शिशुओं को यही प्रेरणा है कि वे प्रभु का उपासन करें। प्रभु उनके शत्रुओं का विनाश करेंगे। प्रभु की उपासना होने पर सारा संसार भी हमारा पराजय न कर सकेगा।

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