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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 6
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७

    त्वे क्रतु॒मपि॑ पृञ्चन्ति॒ भूरि॒ द्विर्यदे॒ते त्रिर्भ॑व॒न्त्यूमाः॑। स्वा॒दोः स्वादी॑यः स्वा॒दुना॑ सृजा॒ सम॒दः सु मधु॒ मधु॑ना॒भि यो॑धीः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे इति॑ । क्रतु॑म् । अपि॑ । पृ॒ञ्च॒न्ति । भूरि॑ । द्वि:। यत् । ए॒ते । त्रि: । भ‍व॑न्ति । ऊमा॑: ॥ स्वा॒दो । स्वादी॑य: । स्वा॒दुना॑ । सृ॒ज॒ । सम् । अ॒द: । सु । मधु॑ । मधु॑ना । अ॒भि । यो॒धी॒: ॥१०७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे क्रतुमपि पृञ्चन्ति भूरि द्विर्यदेते त्रिर्भवन्त्यूमाः। स्वादोः स्वादीयः स्वादुना सृजा समदः सु मधु मधुनाभि योधीः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे इति । क्रतुम् । अपि । पृञ्चन्ति । भूरि । द्वि:। यत् । एते । त्रि: । भ‍वन्ति । ऊमा: ॥ स्वादो । स्वादीय: । स्वादुना । सृज । सम् । अद: । सु । मधु । मधुना । अभि । योधी: ॥१०७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (विश्वे) = सब उपासक (त्वे) = आप में ही-आपकी उपासना में ही (क्रतम) = ज्ञानों, कर्मों व संकल्पों को (अपि प्रञ्चन्ति) = संपृक्त करते हैं, [purify पवित्र करते हैं]।२. (एते) = ये (ऊमा:) = आपके सम्पर्क द्वारा अपने मलों का प्रक्षालण करके अपना रक्षण करनेवाले लोग (यत्) = जब (द्विः भवन्ति) = दो बार होते हैं, अर्थात् प्रात:-सायं आपके ध्यान में बैठते हैं, अथवा (त्रिः) = [भवन्ति]-तीन बार [प्रात:, मध्याह व सायं] आपकी उपासना में स्थित होते हैं तो (स्वादोः स्वादीयः) = स्वादु से भी स्वादु, अर्थात् मधुरतम आप इस उपासक के जीवन को (स्वादुना सृजा) = माधुर्य से संसृष्ट करते हैं। ३. (अद:) = इस उपासक के (सुमधु) = उत्तम मधुर जीवन को (मधुना) = और अधिक माधुर्य से (अभियोधी:) = वासनाओं के साथ युद्ध के द्वारा संगत करते हैं। वासनाओं को विनष्ट करके इस उपासक के जीवन को आप अधिक मधुर बनाते हैं। ४. सायणाचार्य के अनुसार 'द्विः भवन्ति' का भाव यह है कि जब ये गृहस्थ बनकर एक से दो होते हैं, तथा 'त्रि: भवन्ति' का भाव यह है कि जब इन्हें सन्तान प्राप्त होते हैं और ये दो से तीन हो जाते हैं। इसप्रकार गृहस्थ बनकर ये आपके उपासक बने ही रहें और आप इनके गृहस्थ जीवन को मधुर-ही-मधुर बनाइए।

    भावार्थ - प्रभु की उपासना के द्वारा हम अपने कर्मों व संकल्पों को पवित्र करें। दो बार व तीन बार प्रभु-चरणों में बैठने का नियम बनाये। प्रभु हमारे जीवनों को मधुर बनाएँगे।

    सूचना - तीन बार प्रभु-चरणों में बैठने का भाव इस रूप में लेना चाहिए कि हम 'बाल्य, यौवन व वार्धक्य' रूप 'प्रातः, मध्याहू व सायन्तन' सवन में प्रभु-चरणों में बैठनेवाले बनें।

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