अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 14
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒द्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । उत् । अ॒गा॒त् । अनी॑कम् । चक्षु॑: । मि॒त्र॒स्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒ग्ने: ॥ आ । अ॒प्रा॒त् । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सूर्य॑: । आ॒त्मा । जग॑त: । त॒स्थुष॑: । च॒ ॥१०७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्राद्द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रम् । देवानाम् । उत् । अगात् । अनीकम् । चक्षु: । मित्रस्य । वरुणस्य । अग्ने: ॥ आ । अप्रात् । द्यावापृथिवी इति । अन्तरिक्षम् । सूर्य: । आत्मा । जगत: । तस्थुष: । च ॥१०७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 14
विषय - 'सर्वभूतान्तरात्मा' प्रभु
पदार्थ -
१. ये प्रभु ही (चित्रम्) = सब ज्ञानों के देनेवाले हैं। सब (देवानम्) = देवों के (अनीकम्) = बल हैं सब देवों को देवत्व प्रात करानेवाले हैं। (उदगात्) = ये मेरे हृदय में उदित हुए हैं। ये प्रभु ही (मित्रस्य) = द्युलोकस्थ सूर्य के (वरुणस्य) = अन्तरिक्षस्थ रात्रि में चन्द्ररूप से दीप्त सूर्यकिरण के तथा (अग्ने:) = पृथिवीलोकस्थ (अग्ने:) = अग्नि के (चक्ष:) = प्रकाशक हैं। सब देवों को दीप्ति देनेवाले वे प्रभु हैं 'तेन देवाः देवतामनु आयन्'। २. ये प्रभु ही द्यावापृथिवी (अन्तरिक्षम्) = द्युलोक, पृथिवीलोक व अन्तरिक्षलोकरूपी त्रिलोकी को आपात-पुरण व व्याप्त कर रहे हैं। सर्य: [सवति कर्मणि] सब द्युलोक-लोकान्तरों व कर्मों को प्रभु ही क्रियाशील बना रहे हैं। सब पिण्डों में शक्ति की स्थापना प्रभु ही करते हैं। वस्तुतः प्रभु ही (जगतः तस्थुषः च) = जंगम व स्थावर जगत के (आत्मा) = आत्मा हैं। सबके अन्दर ओत-प्रोत होकर सबको शक्ति-सम्पन्न व क्रियाशील बना रहे हैं।
भावार्थ - प्रभु ही ज्ञान व बल के देनेवाले हैं। वे ही सूर्य, चन्द्र व अग्नि के प्रकाशक हैं। त्रिलोकी को व्याप्त किये हुए हैं। ब्रह्माण्डरूप शरीर की वे आत्मा हैं। सब प्राणियों के हदयों में स्थित हैं।
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