अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 7
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१०७
यदि॑ चि॒न्नु त्वा॒ धना॒ जय॑न्तं॒ रणे॑रणे अनु॒मद॑न्ति॒ विप्राः॑। ओजी॑यः शुष्मिन्त्स्थि॒रमा त॑नुष्व॒ मा त्वा॑ दभन्दु॒रेवा॑सः क॒शोकाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । चि॒त् । नु । त्वा॒ । धना॑ । जय॑न्तम् । रणे॑ऽरणे । अ॒नु॒मद॑न्ति । विप्रा॑: ॥ ओजी॑य: । शु॒ष्मि॒न् । स्थि॒रम् । आ । त॒नु॒ष्व॒ । मा । त्वा॒ । द॒भ॒न् । दु॒:ऽएवा॑स: । क॒शोका॑: ॥१०७.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि चिन्नु त्वा धना जयन्तं रणेरणे अनुमदन्ति विप्राः। ओजीयः शुष्मिन्त्स्थिरमा तनुष्व मा त्वा दभन्दुरेवासः कशोकाः ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । चित् । नु । त्वा । धना । जयन्तम् । रणेऽरणे । अनुमदन्ति । विप्रा: ॥ ओजीय: । शुष्मिन् । स्थिरम् । आ । तनुष्व । मा । त्वा । दभन् । दु:ऽएवास: । कशोका: ॥१०७.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 7
विषय - धन के साथ प्रभु-स्मरण
पदार्थ -
१. (यदि चत् नु) = यदि निश्चय से अब (रणे रणे) = प्रत्येक संग्राम में (धना जयन्तं त्वा) = धनों का विजय करानेवाले आपको (विप्रा:) = ये ज्ञानी पुरुष (अनुमदन्ति) = प्रतिदिन स्तुत करते हैं तो हे (शुष्मिन्) = शत्रु-शोषक बलोंवाले प्रभो! इन उपासकों में (ओजीयः) = ओजस्विता से पूर्ण (स्थिरम्) = स्थिर धन को (आतनुष्व) = विस्तृत कीजिए। वस्तुत: प्रभु-उपासना होने पर धन के विजय का अहंकार नहीं होता, विषयों की ओर झुकाव न होकर ओजस्विता बनी रहती है तथा धन का विषयों में विनाश भी नहीं हो जाता। २. हे प्रभो! इन धनों के कारण (दरेवा:) = दुर्गमनवाले (कशोका:) = विनाशक भाव [to destroy] अथवा अभिमान के प्रलाप [to serend] (त्वा मा दभन्) = आपके स्मरण को हमारे हृदयों से हिंसित न कर दें। हम धनों के गर्व में अभिमानयुक्त होकर घातपात की क्रियाओं में न लग जाएँ।
भावार्थ - हम धनों को प्रभु से प्राप्त कराया जाता हुआ जानें। ये धन हमारी ओजस्विता व चित्तवृत्ति की स्थिरता को नष्ट करनेवाले न हों। धनों के अहंकार में विषय-प्रवण होकर हम प्रभु को भूल ही न जाएँ।
इस भाष्य को एडिट करें