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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 8
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७

    त्वया॑ व॒यं शा॑शद्महे॒ रणे॑षु प्र॒पश्य॑न्तो यु॒धेन्या॑नि॒ भूरि॑। चो॒दया॑मि त॒ आयु॑धा॒ वचो॑भिः॒ सं ते॑ शिशामि॒ ब्रह्म॑णा॒ वयां॑सि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वया॑ । व॒यम् । शा॒श॒द्म॒हे॒ । रणे॑षु । प्र॒ऽपश्य॑न्त: । यु॒धेन्या॑नि । भूरि॑ ॥ चो॒दया॑मि । ते॒ । आयु॑धा । वच॑:ऽभि: । सम् । ते॒ । शि॒शा॒म‍ि॒ । ब्रह्म॑णा । वयां॑सि ॥१०७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वया वयं शाशद्महे रणेषु प्रपश्यन्तो युधेन्यानि भूरि। चोदयामि त आयुधा वचोभिः सं ते शिशामि ब्रह्मणा वयांसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वया । वयम् । शाशद्महे । रणेषु । प्रऽपश्यन्त: । युधेन्यानि । भूरि ॥ चोदयामि । ते । आयुधा । वच:ऽभि: । सम् । ते । शिशाम‍ि । ब्रह्मणा । वयांसि ॥१०७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    १. हे प्रभो। (वयम्) = हम (रणेषु) = संग्रामों में त्वया आपके साथ (प्रपश्यन्त:) = अच्छी प्रकार से देखते हुए-ज्ञान को प्राप्त करते हुए (युधेन्यानि) = युद्ध करने योग्य 'काम, क्रोध, लोभ' आदि आसुरभावों को (भूरि) = खूब ही (शाशद्महे) = नष्ट करनेवाले हों। हमारे अन्दर छिपकर रहनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं को हम अवश्य विनष्ट करनेवाल हों। २. (ते) = आपसे दिये हुए (आयुधा) = 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि रूप अस्त्रों को (वचोभि:) = आपके वेद में दिये गये वचनों [निर्देशों] के अनुसार (चोदयामि) = प्रेरित करता है। (ते ब्रह्मणा) = आपके इस वेदज्ञान व स्तवन से (वयांसि) = मैं अपने 'बाल्य, यौवन व वार्धक्य' में विभक्त जीवनों को (संशिशामि) = तीन करता हैं। मैं अपनी शक्ति व बुद्धि को तीन बनाता हूँ और इसप्रकार वासनारूप शत्रुओं को विनष्ट करनेवाला होता हूँ।

    भावार्थ - प्रभु से मिलकर हम वासनारूप शत्रुओं को युद्ध में पराजित करें। इस युद्ध के लिए ज्ञान की वाणियों के द्वारा 'इन्द्रिय, मन व बुद्धि' रूप अस्त्रों को तीन करें।

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