अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 3
वि चि॑द्वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तो॒ वज्रे॑ण श॒तप॑र्वणा। शिरो॑ बिभेद वृ॒ष्णिना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ । चि॒त् । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑त: । वज्रे॑ण: । श॒तऽप॑र्वणा ॥ शिर॑: । बि॒भे॒द॒ । वृ॒ष्णिना॑ ॥१०७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वि चिद्वृत्रस्य दोधतो वज्रेण शतपर्वणा। शिरो बिभेद वृष्णिना ॥
स्वर रहित पद पाठवि । चित् । वृत्रस्य । दोधत: । वज्रेण: । शतऽपर्वणा ॥ शिर: । बिभेद । वृष्णिना ॥१०७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 3
विषय - 'शतपर्व वृष्णि' वज्र
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (दोधतः) = [दुध o kill] हमारा विनाश करनेवाले ज्ञान की आवरणभूत वासना के (शिरः) = सिर का (चित्) = निश्चय से (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वन के द्वारा (बिभेद) = विदारण कर देता है। क्रियाशीलता हमपर वासना का आक्रमण नहीं होने देती। २. यह क्रियाशीलतारूप वज्र (वृष्णिना) = बड़ा प्रबल है-हममें शक्ति का सेचन करनेवाला है तथा (शतपर्वणा) = शतवर्षपर्यन्त हमारा पूरण करनेवाला है। वस्तुत: क्रियाशीलता से ही शक्ति बनी रहती है और सौ वर्ष का पूर्ण जीवन प्राप्त होता है।
भावार्थ - जितेन्द्रिय पुरुष क्रियाशील बना रहकर वासना का विनाश करनेवाला बनता है। इससे वह शक्ति-सम्पन्न व शतवर्षपर्यन्त जीवनवाला होता है।
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