अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 2
ओज॒स्तद॑स्य तित्विष उ॒भे यत्स॒मव॑र्तयत्। इन्द्र॒श्चर्मे॑व॒ रोद॑सी ॥
स्वर सहित पद पाठओज॑: । तत् । अ॒स्य॒ । ति॒त्वि॒षे॒ । उ॒भे इति॑ । यत् । स॒म्ऽअव॑र्तयत् ॥ इन्द्र॑: । चर्म॑ऽइव। रोद॑सी॒ इति॑ ॥१०७.२॥
स्वर रहित मन्त्र
ओजस्तदस्य तित्विष उभे यत्समवर्तयत्। इन्द्रश्चर्मेव रोदसी ॥
स्वर रहित पद पाठओज: । तत् । अस्य । तित्विषे । उभे इति । यत् । सम्ऽअवर्तयत् ॥ इन्द्र: । चर्मऽइव। रोदसी इति ॥१०७.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 2
विषय - ज्ञान+शक्ति-ओजस्विता
पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (चर्म इव) = चर्म की भाँति (यत्) = जब (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को (समवर्तयत्) = ओढ़ [Wrap up] लेता है, अर्थात् मस्तिष्करूप द्युलोक तथा शरीररूप पृथिवीलोक दोनों का धारण करता है, (तत्) = तब (अस्य ओज:) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का ओज [शक्ति] (तित्विषे) = चमक उठता है। २. ओजस्विता केवल शरीर की शक्ति से नहीं, अपितु मस्तिष्क का ज्ञान होने पर भी चमकती है। शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान' दोनों के ही धारण की आवश्यकता है। ये दोनों सम्मिलितरूप से धारण किये जाने पर इस रूप में हमारे रक्षक होते हैं, जैसे कि एक ढाल [चर्म]। जैसे एक योद्धा ढाल के द्वारा अपने को शत्रु के प्रहार से बचाता है, इसप्रकार उपासक को 'शक्ति व ज्ञान' रोग व वासनारूप शत्रुओं से बचाते हैं।
भावार्थ - शरीर की शक्ति व मस्तिष्क का ज्ञान-दोनों को सम्मिलितरूप से धारण करने पर हम ओजस्वी बनते हैं। यह ओजस्विता ही हमारा रक्षण करनेवाली ढाल बनती है।
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