अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 12
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - भुरिक्परातिजागतात्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१०७
ए॒वा म॒हान्बृ॒हद्दि॑वो॒ अथ॒र्वावो॑च॒त्स्वां त॒न्वमिन्द्र॑मे॒व। स्वसा॑रौ मात॒रिभ्व॑री अरि॒प्रे हि॒न्वन्ति॑ चैने॒ शव॑सा व॒र्धय॑न्ति च ॥
स्वर सहित पद पाठए॒व । म॒हान् । बृ॒हत्ऽदि॑व: । अथ॑र्वा । अवो॑चत् । स्वाम् । त॒न्व॑म् । इन्द्र॑म् । ए॒व ॥ स्वसा॑रौ । मा॒त॒रिभ्व॑री॒ इति॑ । अ॒रि॒प्रे इति॑ । हि॒न्वन्ति॑ । च॒ । ए॒ने॒ इति॑ । शव॑सा । व॒र्धय॑न्ति । च॒ ॥१०७.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
एवा महान्बृहद्दिवो अथर्वावोचत्स्वां तन्वमिन्द्रमेव। स्वसारौ मातरिभ्वरी अरिप्रे हिन्वन्ति चैने शवसा वर्धयन्ति च ॥
स्वर रहित पद पाठएव । महान् । बृहत्ऽदिव: । अथर्वा । अवोचत् । स्वाम् । तन्वम् । इन्द्रम् । एव ॥ स्वसारौ । मातरिभ्वरी इति । अरिप्रे इति । हिन्वन्ति । च । एने इति । शवसा । वर्धयन्ति । च ॥१०७.१२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 12
विषय - प्रभुरूपता
पदार्थ -
१. (एवा) = इसप्रकार (महान्) = पूजा की वृत्तिवाला [मह पूजायाम्] (बृहद्दिवः) = उत्कृष्ट ज्ञान धनवाला (अथर्वा) = न डाँवाडोल वृत्तिवाला पुरुष (स्वां तन्वम्) = अपने शरीर को (इन्द्रम् एव अवोचत्) = परमेश्वर ही कहता है। अन्त:स्थित प्रभु के कारण उसे प्रभु ही जानता है। शीशी में शहद हो तो शीशी की ओर संकेत करके यही तो कहा जाता है कि 'यह शहद है'। इसी प्रकार अन्त:स्थित प्रभु को देखता हुआ यह अपने शरीर की ओर निर्देश करता हुआ यही कहता है कि 'यह प्रभु ही है'। २. इसप्रकार से (स्वसार:) = उस आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाले ज्ञानी पुरुष (मातरिभ्वरी) = सदा वेदववाणीरूप माता में होनेवाली, अर्थात् वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाली और अतएव (अरिप्रे) = निर्दोष (एने) = इन ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों के समूह को (हिन्वन्ति) = प्रवृद्ध शक्तिवाला करते हैं 'हि वृद्धी' (च) = और (शवसा वर्धयन्ति) = बल से बढ़ाते हैं अथवा गतिशीलता से बढ़ाते हैं। इन इन्द्रियों को अपने-अपने कर्मों में व्याप्त करके इन्हें सशक्त बनाये रखते हैं।
भावार्थ - ज्ञानी पुरुष सदा अन्त:स्थित प्रभु का ध्यान करता है। आत्मतत्त्व की और चलता हुआ यह इन्द्रियों को सशक्त बनाये रखता है।
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