अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 13
चि॒त्रं दे॒वानां॑ के॒तुरनी॑कं॒ ज्योति॑ष्मान्प्र॒दिशः॒ सूर्य॑ उ॒द्यन्। दि॑वाक॒रोऽति॑ द्यु॒म्नैस्तमां॑सि॒ विश्वा॑तारीद्दुरि॒तानि॑ शु॒क्रः ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । के॒तु: । अनी॑कम् । ज्योति॑ष्मान् । प्र॒ऽदिश॑: । सूर्य॑: । उ॒त्ऽवन् ॥ दि॒वा॒ऽक॒र: । अति॑ । द्यु॒म्नै: । तमां॑सि । विश्वा॑ । अ॒ता॒री॒त् । दु॒:ऽइ॒तानि॑ । शु॒क्र: ॥१०७.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रं देवानां केतुरनीकं ज्योतिष्मान्प्रदिशः सूर्य उद्यन्। दिवाकरोऽति द्युम्नैस्तमांसि विश्वातारीद्दुरितानि शुक्रः ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रम् । देवानाम् । केतु: । अनीकम् । ज्योतिष्मान् । प्रऽदिश: । सूर्य: । उत्ऽवन् ॥ दिवाऽकर: । अति । द्युम्नै: । तमांसि । विश्वा । अतारीत् । दु:ऽइतानि । शुक्र: ॥१०७.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 13
विषय - प्रभुरूप सूर्य का उदय
पदार्थ -
१. गतमन्त्र के अनुसार अन्त:स्थित प्रभु को देखने पर यह उपासक अनुभव करता है कि वे प्रभु ही (चित्रम्) = सब ज्ञानों के देनेवाले हैं। (देवानां केतुः) = सब देवों के प्रकाशक हैं [brightness]| सूर्य आदि सब प्रभु द्वारा ही प्रकाशित हो रहे हैं। (अनीकम्) = प्रभु ही बल हैं 'बलं बलवताञ्चाई कामरागविर्जितम्। (ज्योतिष्मान्) = प्रकाशमय हैं। (उद्यन् सूर्य:) = उदय होते हुए-हृदय में प्रादुर्भूत होते हुए-सूर्यसम ज्योतिवाले वे प्रभु (प्रदिश:) = उपासक के लिए मार्ग का निर्देश करनेवाले हैं। २. ये उदय होते हुए प्रभुरूप सूर्य (द्युम्नै:) = ज्ञान-ज्योतियों से (तमांसि) = सब अन्धकारों को (दिवा करोति) = दिन के प्रकाश में परिवर्तित कर देते हैं। (शुक्र:) = [शुच्] वे देदीप्यमान प्रभु (विश्वा दुरितानि) = सब दुरितों को (अतारीत्) = तैर जाते हैं-विध्वस्त कर देते हैं। प्रभु के उदय होते ही सब पापों व अज्ञानों का अन्धकार विलीन हो जाता है।
भावार्थ - प्रभु ही प्रकाश व बल के देनेवाले हैं। प्रभु के हृदय में उदय होते ही सब अशुभवृत्तियों विलीन हो जाती हैं।
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