अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 4
सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-१०७
तदिदा॑स॒ भुव॑नेषु॒ ज्येष्ठं॒ यतो॑ ज॒ज्ञ उ॒ग्रस्त्वे॒षनृ॑म्णः। स॒द्यो ज॑ज्ञा॒नो नि रि॑णाति॒ शत्रू॒ननु॒ यदे॑नं॒ मद॑न्ति॒ विश्व॒ ऊमाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतत् । इत् । आ॒स॒ । भुव॑नेषु । ज्येष्ठ॑म् । यत॑: । ज॒ज्ञे । उ॒ग्र: । त्वे॒षऽनृ॑म्ण: ॥ स॒द्य: । ज॒ज्ञा॒न: । नि । रि॒णा॒ति॒ । शत्रू॑न् । अनु॑ । यत् । ए॒न॒म् । मद॑न्ति । विश्वे॑ । ऊमा॑: ॥१०७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
तदिदास भुवनेषु ज्येष्ठं यतो जज्ञ उग्रस्त्वेषनृम्णः। सद्यो जज्ञानो नि रिणाति शत्रूननु यदेनं मदन्ति विश्व ऊमाः ॥
स्वर रहित पद पाठतत् । इत् । आस । भुवनेषु । ज्येष्ठम् । यत: । जज्ञे । उग्र: । त्वेषऽनृम्ण: ॥ सद्य: । जज्ञान: । नि । रिणाति । शत्रून् । अनु । यत् । एनम् । मदन्ति । विश्वे । ऊमा: ॥१०७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 4
विषय - ज्येष्ठ ब्रह्म
पदार्थ -
१. (तत्) = वे ब्रह्म (इत्) = ही (भुवनेषु) = सब भुवनों में सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड में (ज्येष्ठं आस) = सर्वश्रेष्ठ हैं। (यत:) = जिस ब्रह्म से (उन:) = तेजस्वी (त्वेषनम्ण:) = दीप्त बलवाला यह आदित्य (जज्ञे) = उत्पन्न हुआ है। प्रभु इस लोक में देदीप्यमान सूर्य को उदित करते हैं। इसी प्रकार हमारे मस्तिष्करूप द्यलोक में भी ज्ञान का सूर्य प्रभु के द्वारा उदित किया जाता है। २. यह सूर्य (जज्ञान:) = प्रादुर्भूत होता हुआ (सद्यः) = शीघ्र ही (शत्रून्) = शत्रुभूत अन्धकारों को (निरिणाति) = नष्ट करता है। मस्तिष्क में उदित होनेवाला ज्ञानसूर्य अज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाला होता है। अज्ञानान्धकार के नाश के द्वारा (विश्वे ऊमा:) = अपना रक्षण करनेवाले सब प्राणी (यम्) = जिसके (अनुमदन्ति) = पीछे उल्लास का अनुभव करते हैं। जितना-जितना प्रभु का उपासन करते हैं, उतना-उतना एक रस का अनुभव लेते है।
भावार्थ - प्रभु के उपासन से ज्ञानसूर्य का उदय होता है-वासनान्धकार का विनाश होता है और प्रभु-प्राप्ति के आनन्द का अनुभव होता है।
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