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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 107

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 107/ मन्त्र 11
    सूक्त - बृहद्दिवोऽथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१०७

    इ॒मा ब्रह्म॑ बृ॒हद्दि॑वः कृणव॒दिन्द्रा॑य शू॒षम॑ग्नि॒यः स्व॒र्षाः। म॒हो गो॒त्रस्य॑ क्षयति स्व॒राजा॒ तुर॑श्चि॒द्विश्व॑मर्णव॒त्तप॑स्वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा । ब्रह्म॑ । बृ॒हत्ऽदि॑व: । कृ॒ण॒व॒त् । इन्द्रा॑य । शू॒षम् । अ॒ग्नि॒य: । स्व॒:ऽसा: ॥ म॒ह: । गो॒त्रस्य॑ । क्ष॒य॒ति॒ । स्व॒ऽराजा॑ । तुर॑: । चि॒त् । विश्व॑म् । अ॒र्ण॒व॒त् । तप॑स्वान् ॥१०७.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा ब्रह्म बृहद्दिवः कृणवदिन्द्राय शूषमग्नियः स्वर्षाः। महो गोत्रस्य क्षयति स्वराजा तुरश्चिद्विश्वमर्णवत्तपस्वान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा । ब्रह्म । बृहत्ऽदिव: । कृणवत् । इन्द्राय । शूषम् । अग्निय: । स्व:ऽसा: ॥ मह: । गोत्रस्य । क्षयति । स्वऽराजा । तुर: । चित् । विश्वम् । अर्णवत् । तपस्वान् ॥१०७.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 107; मन्त्र » 11

    पदार्थ -
    १. (बृहद् दिवः) = उत्कृष्ट ज्ञानधनवाला व्यक्ति (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (इमा ब्रह्म) = इन स्तोत्रों का (कृणवत्) = निर्माण व उच्चारण करता है। इस स्तवन से (अग्रिय:) = जीवन-मार्ग में आगे बढ़नेवाला (स्वर्षा:) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाला यह 'बृहद्दिव'(शूषम्) = शत्रुशोषक बल को [नि० २.९] व सुख को [नि० ३.६] (क्षयति) = प्राप्त होता है [क्षि गती] और (महः गोत्रस्य) = महनीय, तेजस्वी इन्द्रियसमूह का क्षयति [रक्षयति]-ईश्वर होता है। [क्षि to gover, to rule, to be master of] २. यह (स्वराजा) = अपना शासन करनेवाला व्यक्ति (चित्) = निश्चय से (तुरः) = सब शत्रुओं का संयम करनेवाला होता है, परिणामतः (विश्वम् अर्णवत्) = इसका यह सारा ज्ञानेन्द्रियसमूह ज्ञानजलवाला होता है और यह (तपस्वान्) = अतिशयित ज्ञानदीसिवाला होता है [तप् दीसौ]।

    भावार्थ - प्रभु का स्तवन करता हुआ ज्ञानी पुरुष जीवन-यात्रा में आगे बढ़ता है और प्रकाश व सुख प्राप्त करता है।

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