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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 18
    सूक्त - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त

    यद्गि॒रिषु॒ पर्व॑तेषु॒ गोष्वश्वे॑षु॒ यन्मधु॑। सुरा॑यां सि॒च्यमा॑नायां॒ यत्तत्र॒ मधु॒ तन्मयि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गि॒रिषु॑ । पर्व॑तेषु । गोषु॑ । अश्वे॑षु । यत् । मधु॑ । सुरा॑याम् । सि॒च्यमा॑नायाम् । यत् । तत्र॑ । मधु॑ । तत् । मयि॑ ॥१.१८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गिरिषु पर्वतेषु गोष्वश्वेषु यन्मधु। सुरायां सिच्यमानायां यत्तत्र मधु तन्मयि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । गिरिषु । पर्वतेषु । गोषु । अश्वेषु । यत् । मधु । सुरायाम् । सिच्यमानायाम् । यत् । तत्र । मधु । तत् । मयि ॥१.१८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 18

    पदार्थ -

    १. (यत्) = जो (मधु) = मधुररस-जीवनप्रद ओषधियों का रस (गिरिषु) = बड़े-बड़े पर्वतों में है, (यत्) = जो (पर्वतेषु) = छोटे पर्वतों पर ओषधियों व फलों का रस है, (यत् मधु) = जो मधुरस (गोषु अश्वेषु) = गौओं में मधुर दूध का तथा तीव्र वेगवाले घोड़ों में जो विजय-लक्ष्मी का मधुर आनन्द है, इसी प्रकार (सिच्यमानायाम्) = पृथिवी पर मेघों से सिक्त किये जाते हुए (सुरायाम्) = वृष्टिजल में (यत्) = जो (तत्र मधु) = वहाँ मधु है, (तत् मयि) = वह मधु मुझमें भी हो।

    भावार्थ -

    जिस प्रकार पर्वतों की ओषधियों में मधुर रस है, जैसे गोदुग्ध में मधुरता है, घोड़े की तीव्र गति में जो विजय-लक्ष्मी का मधु है तथा मेघ-सिक्त वृष्टिजल में जो माधुर्य है, वही माधुर्य मेरी वाणी में भी हो।

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