अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 10
सूक्त - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - परोष्णिक्पङ्क्तिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
स्त॑नयि॒त्नुस्ते॒ वाक्प्र॑जापते॒ वृषा॒ शुष्मं॑ क्षिपसि॒ भूम्या॒मधि॑। अ॒ग्नेर्वाता॑न्मधुक॒शा हि ज॒ज्ञे म॒रुता॑मु॒ग्रा न॒प्तिः ॥
स्वर सहित पद पाठस्त॒न॒यि॒त्नु: । ते॒ । वाक् । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ । वृषा॑ । शुष्म॑म् । क्षि॒प॒सि॒ । भूम्या॑म् । अधि॑ । अ॒ग्ने: । वाता॑त् । म॒धु॒ऽक॒शा । हि । ज॒ज्ञे । म॒रुता॑म् । उ॒ग्रा । न॒प्ति: ॥१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तनयित्नुस्ते वाक्प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यामधि। अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥
स्वर रहित पद पाठस्तनयित्नु: । ते । वाक् । प्रजाऽपते । वृषा । शुष्मम् । क्षिपसि । भूम्याम् । अधि । अग्ने: । वातात् । मधुऽकशा । हि । जज्ञे । मरुताम् । उग्रा । नप्ति: ॥१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 10
विषय - ज्ञान+शक्ति [वाक् शुष्मम्]
पदार्थ -
१. हे (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (ते वाक्) = आपकी वाणी (स्तनयित्नु:) = मेष-गर्जना के समान है [हरिरेति कनिक्रदत्०], सबसे सुनने के योग्य है, परन्तु दौर्भाग्यवश सामान्यत: लोग इसे सुनते नहीं। (वृषा) = शक्तिशाली आप (भूम्याम्) = हमारे शरीरों में (शुष्मं अधिक्षपसि) = शक्ति प्रेरित करते हैं। २. (मधुकशा) = मधुरता से ज्ञान का उपदेश करनेवाली वेदवाणी (अग्नेः वातात् हि जज्ञे) = अग्नि-वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के हेतु से ही प्रादुर्भूत की गई है। प्रभु ने इन पदार्थों को प्राप्त कराया है तथा वेदवाणी द्वारा इनका ज्ञान दिया है। यह वेदवाणी (मरुताम्) = प्राणसाधकों की उग्रा नप्ति:-तेजस्विनी वन गिरने देनेवाली शक्ति है। वेदवाणी द्वारा ये प्राणसाधक सदा उत्थान के पद पर ही चलते हैं।
भावार्थ -
प्रभु की वाणी मेष-गर्जना के समान है। उसे न सुनना हमारा दुर्भाग्य ही है। प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराते हैं और अग्नि, वायु आदि पदार्थों का वेदवाणी द्वारा ज्ञान देते हैं। यह वेदवाणी प्राणसाधक पुरुषों को तेजस्वी व उन्नत बनाती है।
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