अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 20
सूक्त - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - भुरिग्विष्टारपङ्क्तिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
स्त॑नयि॒त्नुस्ते॒ वाक्प्र॑जापते॒ वृषा॒ शुष्मं॑ क्षिपसि॒ भूम्यां॑ दि॒वि। तां प॒शव॒ उप॑ जीवन्ति॒ सर्वे॒ तेनो॒ सेष॒मूर्जं॑ पिपर्ति ॥
स्वर सहित पद पाठस्त॒नि॒यि॒त्नु: । ते॒ । वाक् । प्र॒जा॒ऽप॒ते॒ । वृषा॑ । शुष्म॑म् । क्षि॒प॒सि॒ । भूम्या॑म् । दि॒वि । ताम् । प॒शव॑: । उप॑ । जी॒व॒न्ति॒ । सर्वे॑ । तेनो॒ इति॑ । सा । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । पि॒प॒र्ति॒ ॥१.२०॥
स्वर रहित मन्त्र
स्तनयित्नुस्ते वाक्प्रजापते वृषा शुष्मं क्षिपसि भूम्यां दिवि। तां पशव उप जीवन्ति सर्वे तेनो सेषमूर्जं पिपर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठस्तनियित्नु: । ते । वाक् । प्रजाऽपते । वृषा । शुष्मम् । क्षिपसि । भूम्याम् । दिवि । ताम् । पशव: । उप । जीवन्ति । सर्वे । तेनो इति । सा । इषम् । ऊर्जम् । पिपर्ति ॥१.२०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 20
विषय - इषम्, ऊर्जम्
पदार्थ -
१.हे (प्रजापते) = प्रजाओं के रक्षक प्रभो! (ते वाक स्तनयित्नु:) = आपकी वाणी मेघगर्जन के समान गम्भीर है। आप (वृषा) = समस्त सुखों के वर्षक हो। (भूम्याम्) = इस भूमि पर (दिवि) = तथा युलोक में आप (शमं क्षिपसि) = बल को प्रेरित करते हैं। शरीर [भूमि] तथा मस्तिष्क [धुलोक] को आप सबल बनाते हैं। २. (ताम्) = आपकी उस वाणी को ही आधार बनाकर (सर्वे पशवः उपजीवन्ति) = सब तत्त्वद्रष्टा [पश्यन्ति इति पशवः] जीवित होते हैं अपने जीवन का आधार उस वाणी को ही बनाते हैं। (तेन उ) = उस जीवन को देने के हेतु से ही (सा) = वह वाणी (इषम्) = मस्तिष्क में सत्कर्म की प्रेरणा को तथा शरीर में (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को (पिपर्ति) = पूरित करती है। इस शक्ति के द्वारा ही हम उस प्रेरणा को अपने जीवन का अङ्ग बना पाते हैं।
भावार्थ -
प्रभु की वाणी मेघगर्जन के समान है। वे सुखवर्षक प्रभु हमारे मस्तिष्क व शरीर को सबल बनाते हैं। सब तत्वद्रष्टा प्रभु की वाणी को ही अपने जीवन का आधार बनाते हैं। यह वाणी मस्तिष्क में प्रेरणा और शरीर में शक्ति को पूरित करती है।
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