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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 11
    सूक्त - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त

    यथा॒ सोमः॑ प्रातःसव॒ने अ॒श्विनो॑र्भवति प्रि॒यः। ए॒वा मे॑ अश्विना॒ वर्च॑ आ॒त्मनि॑ ध्रियताम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सोम॑: । प्रा॒त॒:ऽस॒व॒ने । अश्विनो॑: । भव॑ति । प्रि॒य: । ए॒व । मे॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । वर्च॑: । आ॒त्मनि॑ । ध्रि॒य॒ता॒म् ॥१.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सोमः प्रातःसवने अश्विनोर्भवति प्रियः। एवा मे अश्विना वर्च आत्मनि ध्रियताम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सोम: । प्रात:ऽसवने । अश्विनो: । भवति । प्रिय: । एव । मे । अश्विना । वर्च: । आत्मनि । ध्रियताम् ॥१.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. जीवन में प्रथम २४ वर्ष ही जीवन-यज्ञ का प्रात:सवन है। (यथा) = जैसे इस (प्रात:सवने) = प्रात:सवन में (सोम:) = शरीर में रस, रुधिर आदि क्रम से उत्पन्न सोम (अश्विनो:) = प्राणापान के साधकों का (प्रियः भवति) = प्रिय होता है। सोमरक्षण से ही प्राणापान की शक्ति बढ़ती है और प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है, (एव) = इसी प्रकार हे (अश्विना) = प्राणापानो! (मे आत्मनि) = मेरी आत्मा में (वर्च: ध्रियताम्) = ब्रह्मवर्चस्-ज्ञानप्रकाश का धारण किया जाए। हम जीवन के इस प्रथम आश्रम में प्राणसाधना द्वारा सोमरक्षण करते हुए ब्रह्मवर्चस्वाले बनें-ज्ञान संचय करें। २. जीवन के अगले ४४ वर्ष माध्यन्दिन सवन है। गृहस्थ का काल ही माध्यन्दिन सवन है। (यथा) = जैसे (द्वितीये सवने) = जीवन के द्वितीये [माध्यन्दिन] सवन में (सोमः) = सोम (इन्द्राग्न्यो: प्रियः भवति) = इन्द्र और अग्नि का प्रिय होता है, अर्थात् जितेन्द्रिय [इन्द्र] व प्रगतिशील [अग्नि] बनकर एक गृहस्थ भी सोम का रक्षण कर पाता है, (एव) = इसी प्रकार हे (इन्द्राग्री) =  जितेन्द्रियता व प्रगतिशीलता! (मे आत्मनि) = मेरे आत्मा में (वर्च:) = शक्ति (धियताम्) = धारण की जाए। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर हम शक्तिशाली बने रहें। ३. जीवन के अन्तिम ४८ वर्ष जीवन का तृतीय सवन है। (यथा) = जैसे इस (तृतीये सवने) = तृतीय सवन में वानप्रस्थ व संन्यास में (सोमः ऋभूणां प्रियः भवति) = सोम ऋभुओं का [ऋतेन भान्ति, उरु भान्ति वा] प्रिय होता है। ये ऋभ वानप्रस्थ में नित्य स्वाध्याययुक्त होकर ज्ञान से खूब ही दीप्त होते हैं तथा संन्यास में पूर्ण सत्य का पालन करते हुए सत्य से देदीप्यमान होते हैं, एव-इसी प्रकार से ऋभव:-ज्ञानदीस व सत्यदीस व्यक्तियो! मे आत्मनि वर्चः भियताम्-मेरी आत्मा में भी वर्चस् का धारण किया जाए। ज्ञानदीसि व सत्यदीप्ति से मेरा जीवन भी दीप्त हो। ।

    भावार्थ -

    हम जीवन में प्रथमाश्रम में प्राणसाधना द्वारा प्राणापान की शक्ति का वर्धन करते हुए सोम का रक्षण करें। गृहस्थ में भी जितेन्द्रिय व प्रगतिशील बनकर सोमी बनें तथा अन्त में ज्ञान व सत्य से दीप्स बनकर सोम-रक्षण द्वारा वर्चस्वी बनें।

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