अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - बृहतीगर्भा संस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
हि॒ङ्करि॑क्रती बृह॒ती व॑यो॒धा उ॒च्चैर्घो॑षा॒भ्येति॒ या व्र॒तम्। त्रीन्घ॒र्मान॒भि वा॑वशा॒ना मिमा॑ति मा॒युं पय॑ते॒ पयो॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठहि॒ङ्ऽकरि॑क्रती । बृ॒ह॒ती । व॒य॒:ऽधा: । उ॒च्चै:ऽघो॑षा । अ॒भि॒ऽएति॑ । या । व्र॒तम् । त्रीन् । ध॒र्मान् । अ॒भि । वा॒व॒शा॒ना । मिमा॑ति । मा॒युम् । पय॑ते । पय॑:ऽभि: ॥१.८॥
स्वर रहित मन्त्र
हिङ्करिक्रती बृहती वयोधा उच्चैर्घोषाभ्येति या व्रतम्। त्रीन्घर्मानभि वावशाना मिमाति मायुं पयते पयोभिः ॥
स्वर रहित पद पाठहिङ्ऽकरिक्रती । बृहती । वय:ऽधा: । उच्चै:ऽघोषा । अभिऽएति । या । व्रतम् । त्रीन् । धर्मान् । अभि । वावशाना । मिमाति । मायुम् । पयते । पय:ऽभि: ॥१.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
विषय - हिंकरिक्रती-उच्चैर्घोषा
पदार्थ -
१. (हिंकरिक्रती) = [हि गतिवृद्ध्योः ] गति व वृद्धि करनेवाली यह वेदधेनु (बृहती) = वृद्धि का कारण बनती है और (वयोधा:) = उत्कृष्ट जीवन का धारण करती है। (या) = जो यह (उच्चैः घोषा) = उच्च घोषवाली-यह वेदधेनु ज्ञान की वाणियों का गर्जन करनेवाली है, वह (व्रतम् अभि एति) = व्रतमय जीवनवाले पुरुष को प्राप्त होती है। व्रती पुरुष इस वेदधेनु को प्राप्त करता है। २. (त्रीन् घर्मान् अभिवावशाना) = जीवन के 'प्रातः, माध्यन्दिन ब सायन्तन'-इन तीनों सवनों का लक्ष्य करके ज्ञान की वाणियों का प्रतिपादन करती हुई यह वेदवाणी (मायुं मिमाती) = शब्द करती है तथा (पयोभिः पयते) = ज्ञानदुग्धों के साथ हमें प्राप्त होती है।
भावार्थ -
वेदधेनु ब्रतमय जीवनवालों को ज्ञानदुग्ध प्राप्त कराती है तथा ज्ञान-वाणियों के द्वारा ज्ञानदुग्ध देती हुई उनका वर्धन करती है।