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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - मधु, अश्विनौ छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त

    पश्य॑न्त्यस्याश्चरि॒तं पृ॑थि॒व्यां पृथ॒ङ्नरो॑ बहु॒धा मीमां॑समानाः। अ॒ग्नेर्वाता॑न्मधुक॒शा हि ज॒ज्ञे म॒रुता॑मु॒ग्रा न॒प्तिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पश्य॑न्ति । अ॒स्या॒: । च॒रि॒तम् । पृ॒थि॒व्याम् । पृथ॑क् । नर॑: । ब॒हु॒ऽधा । मीमां॑समाना: । अ॒ग्ने: । वाता॑त् । म॒धु॒ऽक॒शा। हि । ज॒ज्ञे । म॒रुता॑म् । उ॒ग्रा । न॒प्ति: ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्यन्त्यस्याश्चरितं पृथिव्यां पृथङ्नरो बहुधा मीमांसमानाः। अग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे मरुतामुग्रा नप्तिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्यन्ति । अस्या: । चरितम् । पृथिव्याम् । पृथक् । नर: । बहुऽधा । मीमांसमाना: । अग्ने: । वातात् । मधुऽकशा। हि । जज्ञे । मरुताम् । उग्रा । नप्ति: ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (पृथक्) = अलग-अलग (बहुधा मीमांसमाना:) = नाना प्रकार से विचार करते हुए (नर:) = मनुष्य (पृथिव्याम्) = इस पृथिवी पर (अस्या:) = इस वेदवाणी के (चरितं पश्यन्ति) = विस्तार को ज्ञान को देखते हैं [ऋ गतौ, गति: ज्ञानम्]। कोई एक मनुष्य वेद के पूर्ण ज्ञान को देखनेवाला नहीं होता। किसी को किसी अर्थाश का स्पष्टीकरण होता है, किसी को किसी अन्य अर्थाश का। किसी ने आधिदैविक अर्थ को देखा तो किसी ने आधिभौतिक और तीसरे ने आध्यात्मिक अर्थ पर ही बल दिया। २. यह (मधुकशा) = वेदवाणी (हि) = निश्चय से (अग्नेः वातात् जज्ञे) = अग्नि व वायु आदि पदार्थों के ज्ञान के हेतु से प्रादुर्भूत होती है। यह मधुकशा (मरुताम्) = प्राणसाधक पुरुषों की (उग्रा नप्ति:) = तेजस्विनी, न गिरने देनेवाली शक्ति है [न पातयित्री]। प्राणसाधक पुरुष इस वेदज्ञान को प्राप्त करके उत्थान की ओर ही चलते हैं।

    भावार्थ -

    वेदवाणी के विचारक इसके विविध अर्थों को देखनेवाले होते हैं। इस वेदवाणी द्वारा प्रभु अग्नि-वायु आदि पदार्थों के ज्ञान का प्रकाश करते हैं। यह वेदवाणी प्राणसाधक पुरुषों को तेजस्वी बनाकर उन्हें उन्नत करती है।

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