अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - त्रिब्टुगर्भा पङ्क्तिः
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
म॒हत्पयो॑ वि॒श्वरू॑पमस्याः समु॒द्रस्य॑ त्वो॒त रेत॑ आहुः। यत॒ ऐति॑ मधुक॒शा ररा॑णा॒ तत्प्रा॒णस्तद॒मृतं॒ निवि॑ष्टम् ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हत् । पय॑: । वि॒श्वऽरू॑पम् । अ॒स्या॒: । स॒मु॒द्रस्य॑ । त्वा॒ । उ॒त । रेत॑: । आ॒हु॒: । यत॑: । आ॒ऽएति॑ । म॒धु॒ऽक॒शा। ररा॑णा । तत् । प्रा॒ण: । तत् । अ॒मृत॑म् । निऽवि॑ष्टम् ॥१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
महत्पयो विश्वरूपमस्याः समुद्रस्य त्वोत रेत आहुः। यत ऐति मधुकशा रराणा तत्प्राणस्तदमृतं निविष्टम् ॥
स्वर रहित पद पाठमहत् । पय: । विश्वऽरूपम् । अस्या: । समुद्रस्य । त्वा । उत । रेत: । आहु: । यत: । आऽएति । मधुऽकशा। रराणा । तत् । प्राण: । तत् । अमृतम् । निऽविष्टम् ॥१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
विषय - प्राण+अमृतम्
पदार्थ -
१. (अस्या:) = इस मधुकशा-वेदवाणी का (पयः) = ज्ञानदुग्ध (महत्) = महनीय-पूजनीय है और (विश्वरूपम्) = सब पदार्थों का निरूपण करनेवाला है (उत) = और हे मधुकशे ! (त्वा) = तुझे (समुद्रस्य) = [स मुद] उस आनन्दमय प्रभु का (रेतः आहुः) = रेतस् [वीर्य] कहते हैं। ज्ञान ही प्रभु की शक्ति है। सर्वज्ञ होने से वे प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं [knowledge is power]। २. (यत:) = जिधर से यह (मधुकशा) = वेदवाणी (रराणा) = ज्ञानोपदेश करती हुई-ज्ञान देती हुई (आ एति) = गति करती है, (तत्) = वह ज्ञान (प्राण:) = प्राणरूप होता हुआ, (तत्) = वह ज्ञान (अमृतम्) = अमृत [आरोग्य दाता] होता हुआ (निविष्टम्) = स्थापित होता है। वह वेदज्ञान प्राण व अमृतत्व को प्राप्त कराता है।
भावार्थ -
महनीय वेदज्ञान संसार के सब पदार्थों का निरूपण करता है। यह ज्ञान ही प्रभु की शक्ति है। जहाँ यह वेदज्ञान होता है, वहाँ प्राणशक्ति और नीरोगता का निवास होता है।
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