अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 13
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
पृ॒च्छामि॑ त्वा॒ पर॒मन्तं॑ पृथि॒व्याः पृ॒च्छामि॒ वृष्णो॒ अश्व॑स्य॒ रेतः॑। पृ॒च्छामि॒ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य॒ नाभिं॑ पृ॒च्छामि॑ वा॒चः प॑र॒मं व्योम ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒च्छामि॑ । त्वा॒ । पर॑म् । अन्त॑म् । पृ॒थि॒व्या: । पृ॒च्छामि॑ । वृष्ण॑: । अश्व॑स्य । रेत॑: । पृ॒च्छामि॑ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । नाभि॑म् । पृ॒च्छामि॑ । वा॒च: । प॒र॒मम् । विऽओ॑म ॥१५.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
पृच्छामि त्वा परमन्तं पृथिव्याः पृच्छामि वृष्णो अश्वस्य रेतः। पृच्छामि विश्वस्य भुवनस्य नाभिं पृच्छामि वाचः परमं व्योम ॥
स्वर रहित पद पाठपृच्छामि । त्वा । परम् । अन्तम् । पृथिव्या: । पृच्छामि । वृष्ण: । अश्वस्य । रेत: । पृच्छामि । विश्वस्य । भुवनस्य । नाभिम् । पृच्छामि । वाच: । परमम् । विऽओम ॥१५.१३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 13
विषय - चार प्रश्न चार उत्तर
पदार्थ -
१. हे आचार्य। मैं (त्वा) = आपसे (पृथिव्याः परम् अन्तं पृच्छामि) = इस पृथिवी के परले सिरे के विषय में पूछता हूँ, अथवा इस पृथिवी का पर अन्त अन्तिम उद्देश्य क्या है? आचार्य उत्तर देते हए कहते हैं कि (इयं वेदि:) = यह वेदि-जहाँ बैठे हुए हम विचार कर रहे हैं, (पृथिव्याः परः अन्त:) = पृथिवी का परला सिरा है। वर्तुलाकार होने से यह पृथिवी यहीं तो आकर समास भी होती है, और हमारा अन्तिम उद्देश्य यही है कि हम पृथिवी को यज्ञवेदि बना दें। यह देवयजनी ही तो है। २. मैं (वृष्णा:) = तेजस्वी (अश्वस्य) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले पुरुष की (रेत: पृच्छामि) = शक्ति के विषय में पूछता हूँ। उत्तर यह है कि (अयं सोम:) = यह वीर्य ही इस (वृष्णः अश्वस्य) = शक्तिशाली अनथक कार्यकर्ता पुरुष की (रेत:) = शक्ति है। यही उसे तेजस्वी व कार्यक्षम बनाती है। ३. (विश्वस्य भुवनस्य नाभिम्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की नाभि, बन्धनस्थान व केन्द्र को (पृच्छामि) = पूछता हूँ। उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि (अयं यज्ञ:) = यह यज्ञ ही तो (भुवनस्य नाभिः) = भुवन का केन्द्र है। यज्ञ ही सबका पालन कर रहा है। ४. अन्त में मैं (वाच:) = इस वेदवाणी के आधारभूत (परमं व्योम) = परमव्योम [आकाश] को (पृच्छामि) = पूछता हूँ। यह वेदवाणी शब्द किस आकाश का गुण है? उत्तर यह है कि (अयं ब्रह्मा) = यह सदा से बढ़ा हुआ प्रभु ही (वाच:) = वेदवाणी का (परमं व्योम) = परमव्योम है। ('ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्') । सब ऋचाएँ उस परमव्योम में ही स्थित व इनका कोश है।
भावार्थ -
हम पृथिवी को यज्ञवेदि के रूप में परिणत कर दें। शरीर में शक्ति का रक्षण करते हुए तेजस्वी व अनथक कार्यकर्ता बनें। यज्ञ को ही पृथिवी का केन्द्र जानें और प्रभु को इस वेदवाणी का आधार जानते हुए प्रभु की उपासना से ज्ञान प्राप्त करने के लिए यत्नशील हों।
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