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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    यद्गा॑य॒त्रे अधि॑ गाय॒त्रमाहि॑तं॒ त्रैष्टु॑भं वा॒ त्रैष्टु॑भान्नि॒रत॑क्षत। यद्वा॒ जग॒ज्जग॒त्याहि॑तं प॒दं य इत्तद्वि॒दुस्ते अ॑मृत॒त्वमा॑नशुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गा॒य॒त्रे । अधि॑ । गा॒य॒त्रम् । आऽहि॑तम् । त्रैस्तु॑भम् । वा॒ । त्रैस्तु॑भात् । नि॒:ऽअत॑क्षत । यत् । वा॒ । जग॑त् । जग॑ति । आऽहि॑तम् । प॒दम् । ये । इत् । तत् । वि॒दु: । ते । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒न॒शु॒: ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभं वा त्रैष्टुभान्निरतक्षत। यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । गायत्रे । अधि । गायत्रम् । आऽहितम् । त्रैस्तुभम् । वा । त्रैस्तुभात् । नि:ऽअतक्षत । यत् । वा । जगत् । जगति । आऽहितम् । पदम् । ये । इत् । तत् । विदु: । ते । अमृतऽत्वम् । आनशु: ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १. पहली बात यह है (यत्) = कि (गायत्रे) = यज्ञ में [गायत्रो वै यज्ञः-गो०पू० ४.२४] (गायत्रम्) = पुरुष [गायत्रो वै पुरुषः-ए० ४.३] (अधि आहितम्) = अधीन करके रक्खा गया है। पुरुष का जीवन यज्ञ पर आश्रित है। यज्ञ के अभाव में पुरुष नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। (अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः') = यह यज्ञ ही भुवन का केन्द्र है। २. (वा) = और (त्रैष्टुभात) = त्रिवेद-विद्या के स्तवन के द्वारा अपने में 'ज्ञान, कर्म व उपासना'-इन तीनों को स्थिर करने के द्वारा (त्रैष्टुभ निरतक्षत) = अपने जीवन को तीनों सुखों से सम्बद्ध किया करते हैं। ज्ञानपूर्वक कर्मों को करने के द्वारा प्रभ के उपासन से आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक'-इन तीनों तापों से निवृत्त होकर [त्रिष्टुभ] मानव जीवन तीन सुखों से सम्बद्ध होता है। [त्रैष्टुभः त्रिभिः सुखैः सम्बद्धः-द०, त्रिवेदविद्यास्तवनेन-द०]। ३. तीसरी बात यह है (यत्) = कि (वै) = निश्चय से जगत्-सर्वत्र गतिवाला (पदम्) = मुनियों से जाए जाने योग्य वह प्रभु (जगति आहितम्) = सारे ब्रह्माण्ड में-कण-कण में आहित हैं। (ये) = जो (इत्) = निश्चय से (तत् विदुः) = उस कण-कण में वर्तमान प्रभु को जानते हैं, (ते) = वे (अमृतत्वम् आनशुः) = मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ -

    मोक्ष को वे ही प्राप्त करते हैं जोकि यह समझ लेते हैं कि १. यज्ञ में ही पुरुष का जीवन निहित है, २. ज्ञान, कर्म व उपासना का समन्वय ही त्रिविध दुःखों को रोकता है तथा ३. वे गतिशील मुनियों से गम्य प्रभु ब्रह्माण्ड के कण-कण में विद्यमान हैं।

     

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