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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    जग॑ता॒ सिन्धुं॑ दि॒व्यस्कभायद्रथंत॒रे सूर्यं॒ पर्य॑पश्यत्। गा॑य॒त्रस्य॑ स॒मिध॑स्ति॒स्र आ॑हु॒स्ततो॑ म॒ह्ना प्र रि॑रिचे महि॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जग॑ता । सिन्धु॑म् । दि॒वि । अ॒स्क॒भा॒य॒त् । र॒थ॒म्ऽत॒रे । सूर्य॑म् । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् । गा॒य॒त्रस्य॑ । स॒म्ऽइध॑: । ति॒स्र: । आ॒हु॒: । तत॑: । म॒ह्ना । प्र । रि॒रि॒चे॒ । म॒हि॒ऽत्वा ॥१५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जगता सिन्धुं दिव्यस्कभायद्रथंतरे सूर्यं पर्यपश्यत्। गायत्रस्य समिधस्तिस्र आहुस्ततो मह्ना प्र रिरिचे महित्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जगता । सिन्धुम् । दिवि । अस्कभायत् । रथम्ऽतरे । सूर्यम् । परि । अपश्यत् । गायत्रस्य । सम्ऽइध: । तिस्र: । आहु: । तत: । मह्ना । प्र । रिरिचे । महिऽत्वा ॥१५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (जगता) = उस सर्वगत, सर्वभूतान्तरात्मा [सर्व वा इदमात्मा जगत्] प्रभु के द्वारा उपासक (सिन्धुम्) = अपने ज्ञान-समुद्र को [वाग्वै समुद्रः-तां०६।४।७] (दिवि अस्कभायत्) = धुलोक में, अर्थात् सर्वोच्च शिखर पर थामता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने पर (रथन्तरे) = इस पृथिवी पर ही [इयं पृथिवी वै रथन्तरम्-को०३५], सूर्यम्-स्वर्ग को [एष आदित्यः स्वगों लोक:-तै० ३।८।१०।३] (परि अपश्यत्) = चारों ओर देखता है। ज्ञान निष्कामता को जन्म देता है, निष्कामता स्वर्ग को। ज्ञानवृद्धि से द्वेषशून्य होकर हम इस पृथिवी पर स्वर्ग को अवतीर्ण करनेवाले बनेंगे। २. 'गायत्र से उपासना, उपासना से शान्ति, शान्ति से ज्ञान' इस ज्ञानचक्र में ज्ञान-सिन्धु का आदिस्रोत गायत्र ही है। इस (गायत्रस्य) = यज्ञ की (समिधः) = समिन्धन-दीत करनेवाली वस्तुएँ (तिस्त्र: आहुः) = तीन कही गई हैं। 'माता, पिता, आचार्य, अतिथि व परमात्मा'-इन पाँच देवों का पूजन पहली समिधा है। इनके साथ मेल [संगतिकरण] दूसरी तथा इनके प्रति अर्पण तीसरी समिधा है। इस ज्ञानयज्ञ की अग्नि में शिष्य से डाली जानेवाली ये तीन समिधाएँ हैं। आचार्य से डाली जानेवाली समिधाओं का नाम 'पृथिवीस्थ पदार्थों का ज्ञान, अन्तरिक्षस्थ पदार्थों का ज्ञान तथा [लोकस्थ पदार्थों का ज्ञान' है। (तत्) = उस ज्ञान-प्राप्ति से ही मनुष्य (मह्ना) = बल के दृष्टिकोण से और (महित्वा) = महिमा के दृष्टिकोण से (प्ररिरिचे) = सभी को लाँघ जाता है। यही मनुष्य की महिमा है कि वह ज्ञान के द्वारा इस मर्त्यलोक को ही स्वर्गलोक बना दे।

    भावार्थ -

    मनुष्य प्रभु की उपासना द्वारा सर्वोच्च ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान के द्वारा इस भू मण्डल को वह स्वर्ग बना देता है। इस ज्ञान-यज्ञ में 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व धुलोक'-स्थ पदार्थों के ज्ञान की आहुति देता हुआ वह बल व महिमा के दृष्टिकोण से सभी को लाँघ जाता है।

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