अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 17
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
स॒प्तार्ध॑ग॒र्भा भुव॑नस्य॒ रेतो॒ विष्णो॑स्तिष्ठन्ति प्र॒दिशा॒ विध॑र्मणि। ते धी॒तिभि॒र्मन॑सा॒ ते वि॑प॒श्चितः॑ परि॒भुवः॒ परि॑ भवन्ति वि॒श्वतः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒प्त । अ॒र्ध॒ऽग॒र्भा: । भुव॑नस्य । रेत॑: । विष्णो॑: । ति॒ष्ठ॒न्ति॒ । प्र॒ऽदिशा॑ । विऽध॑र्मणि । ते । धी॒तिऽभि॑: । मन॑सा । ते । वि॒प॒:ऽचित॑: । प॒रि॒ऽभुव॑: । परि॑ । भ॒व॒न्ति॒ । वि॒श्वत॑: ॥१५.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
सप्तार्धगर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि। ते धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परि भवन्ति विश्वतः ॥
स्वर रहित पद पाठसप्त । अर्धऽगर्भा: । भुवनस्य । रेत: । विष्णो: । तिष्ठन्ति । प्रऽदिशा । विऽधर्मणि । ते । धीतिऽभि: । मनसा । ते । विप:ऽचित: । परिऽभुव: । परि । भवन्ति । विश्वत: ॥१५.१७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 17
विषय - प्रकृति में प्रभु का दर्शन
पदार्थ -
१. प्रकृति से उत्पन्न होनेवाला 'महत्तत्त्व', महान् से उत्पन्न अहंकार तथा अहंकार से उत्पन्न पञ्च तन्मात्राएँ-ये (सप्त) = सात (अर्धगर्भा:) = समृद्ध उत्पादन सामर्थ्यवाले (तत्व भुवनस्य रेत:) = सारे भुवनों की शक्ति हैं-उत्पत्ति के कारण हैं। ये सब (विष्णो:) = उस व्यापक प्रभु के (प्रदिश:) = शासन से विधर्मणि (तिष्ठन्ति) = धारणात्मक कार्य में स्थित हैं। उस प्रभु के शासन में ही अपना-अपना धारण कार्य कर रहे हैं। २. (ते विपश्चित:) = वे विशेषरूप से देखकर चिन्तन करनेवाले, (ते) = वे (धीतिभि:) = ध्यानों के द्वारा और (मनसा) = मनन के द्वारा (परिभुवः) = उन पदार्थों का चारों ओर से [परि] विचार करनेवाले लोग (विश्वतः परिभवन्ति) = सब प्रकार से इन इन्द्रियों का परिभव करते हैं, इन्हें सब ओर से वशीभूत करते हैं।
भावार्थ -
हम प्रकृति से उत्पन्न होते हुए इस संसार के अधिष्ठाता उस प्रभु को न भूलेंगे तो संसार के विषयों में न फँसकर इन्द्रियों को वशीभूत करनेवाले बनेंगे।
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