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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 16
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अपा॒ङ्प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्यन्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अपा॑ङ् । प्राङ् । ए॒ति॒ । स्व॒धया॑ । गृ॒भी॒त: । अम॑र्त्य: । मर्त्ये॑न । सऽयो॑नि: । ता । शश्व॑न्ता । वि॒षू॒चीना॑ । वि॒ऽयन्ता॑ । नि । अ॒न्यम् । चि॒क्यु: । न । नि । चि॒क्यु॒: । अ॒न्यम् ॥१५.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपाङ्प्राङेति स्वधया गृभीतोऽमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः। ता शश्वन्ता विषूचीना वियन्ता न्यन्यं चिक्युर्न नि चिक्युरन्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपाङ् । प्राङ् । एति । स्वधया । गृभीत: । अमर्त्य: । मर्त्येन । सऽयोनि: । ता । शश्वन्ता । विषूचीना । विऽयन्ता । नि । अन्यम् । चिक्यु: । न । नि । चिक्यु: । अन्यम् ॥१५.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 16

    पदार्थ -

    १. जीव कर्मानुसार (अपाङ्) = कभी स्थावर, कभी पक्षी-मगादि की निचली योनियों में (एति) = जाता है और कभी (प्राङ्) = ऋषि-मुनि आदि की उत्कृष्ट योनियों को [एति] प्रास होता है। इस शरीर को छोड़ने पर (स्वधया) = अपनी धारण-शक्ति से (गृभीत:) = युक्त हुआ-हुआ यह दूसरे शरीरों में प्रवेश करता है। अपने लिए [स्व] जिन पाप-पुण्यों का उसने धारण किया है [श्रा lay by], उनसे युक्त हुआ-हुआ वह दूसरे शरीर में प्रवेश करता है। (अमर्त्यः) = स्वरूप से जरामृत्यु से रहित भी यह (मत्यैन समोनि:) = मरणधर्मा शरीर के साथ ही समान जन्मवाला होता है। शरीर के साथ संयुक्त-वियुक्त होने से ही इसके लिए जन्म व मृत्यु के शब्दों का प्रयोग होने लगता है। २. (ता शश्वन्ता) = ये दोनों क्षर शरीर और अक्षर आत्मा सनातन काल से मिलते चले आ रहे हैं। ऐसा कोई समय नहीं जबकि यह शरीर प्रथम बार मिला हो। ये शरीर आत्मा (विषूचीना) = ब्रह्माण्ड में चारों ओर भिन्न-भिन्न लोकों में जानेवाले हैं, केवल प्रथिवी पर जन्म होता हो-ऐसी बात नहीं है। जब कभी यह जीव एक शरीर को छोड़ता है तब ये (वियन्ता) = विरुद्ध स्थितियों में जानेवाले होते हैं। गति देनेवाला अभौतिक आत्मा अमर है और इसके विपरीत यह भौतिक शरीर भस्म में परिणत हो जाता है-('वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्त शरीरम्) । सब कोई (अन्यम्) = इस शरीर को तो (निचिक्यु:) = जानते हैं, इसे ही वस्तुत: अपना स्वरूप समझते हैं। (अन्यम्) = उस आत्मतत्त्व को न निचक्युः नहीं जानते। अपने को ही न जानना' कितनी विचित्र बात है!

    भावार्थ -

    अपने अर्जित पाप-पुण्यों के अनुसार जीव निचली व उपरली योनियों में जन्म लिया करता है। ये शरीर और आत्मा सदा से मेलवाले हैं, भिन्न-भिन्न लोकों में गतिवाले हैं। जीव शरीर को छोड़ता है तो आत्मा तो नये शरीर में प्रवेश पाता है और पराना शरीर भस्मान्त होकर पञ्च तत्त्वों में मिल जाता है। 'हम शरीर को ही जानते हैं, अपने को नहीं जानते' यह कितना बड़ा आश्चर्य है।

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