अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम्
छन्दः - जगती
सूक्तम् - आत्मा सूक्त
अ॒यं स शि॑ङ्क्ते॒ येन॒ गौर॒भीवृ॑ता॒ मिमा॑ति मा॒युं ध्व॒सना॒वधि॑ श्रि॒ता। सा चि॒त्तिभि॒र्नि हि च॒कार॒ मर्त्या॑न्वि॒द्युद्भव॑न्ती॒ प्रति॑ व॒व्रिमौ॑हत ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । स: । शि॒ङ्क्ते॒ । येन॑ । गौ: । अ॒भिऽवृ॑ता । मिमा॑ति । मा॒युम् । ध्व॒सनौ॑ । अधि॑ । श्रि॒ता । सा । चि॒त्तिऽभि॑: । नि । हि । च॒कार॑ । मर्त्या॑न् । वि॒ऽद्युत् । भव॑न्ती । प्रति॑ । व॒व्रिम् । औ॒ह॒त॒ ॥१५.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं स शिङ्क्ते येन गौरभीवृता मिमाति मायुं ध्वसनावधि श्रिता। सा चित्तिभिर्नि हि चकार मर्त्यान्विद्युद्भवन्ती प्रति वव्रिमौहत ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । स: । शिङ्क्ते । येन । गौ: । अभिऽवृता । मिमाति । मायुम् । ध्वसनौ । अधि । श्रिता । सा । चित्तिऽभि: । नि । हि । चकार । मर्त्यान् । विऽद्युत् । भवन्ती । प्रति । वव्रिम् । औहत ॥१५.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
विषय - वेदज्ञान का क्रम
पदार्थ -
१. (येन) = जिसने (गौः अभिवृत्ता) = चारों ओर से अपना ध्यान हटाकर वेदवाणी को बरा है, अर्थात् उसी में अपने मन को केन्द्रित किया है, (अयं स:) = यह वेदाध्येता (शिंक्ते) = अव्यक्त ध्वनि करता है। यद्यपि उसे बेदार्थ अभी व्यक्त नहीं, तो भी श्रद्धापूर्वक, ध्यान से उसका पाठ करता है, तो (ध्वसनौ) = अज्ञान के ध्वसं में (अधिश्रिता) = लगी हुई यह वेदवाणी उस पुरुष को (मायुं मिमाति) = ज्ञानवाला बनाती है। २. (सा) = वह वेदवाणी (चित्तिभि:) = कर्तव्याकर्तव्यों के ज्ञान द्वारा (हि) = निश्चय से (मयम्) = मनुष्य को निचकार-ऊँचा उठाती है, [निकार lift up] और (विद्युत् भवन्ती) = विशेषरूप से द्योतमान होती हुई (वव्रिम्) = अपने रूप को (प्रति औहत) = प्रकट करती है।
भावार्थ -
वेद को समझने के लिए १. मनुष्य अन्यत्र श्रम न करके श्रद्धापूर्वक वेदाध्ययन में ही लगे। अर्थ समझ में न भी आये तो भी उसका पाठ करे। २. धीरे-धीरे यह वेदवाणी उसके अज्ञान को नष्ट करती हुई उसे ज्ञानी बनाएगी। ३. कर्तव्याकर्त्तव्य के ज्ञान के द्वारा उसके आचरण व व्यवहार के स्तर को ऊँचा करेगी और ४. अन्त में यह वेदवाणी उसके सामने स्पष्ट हो जाएगी। वह इसका ऋषि-द्रष्टा बनेगा।
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