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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द्ध्रु॒वं मध्य॒ आ प॒स्त्यानाम्। जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नत् । श॒ये॒ । तु॒रऽगा॑तु । जी॒वम् । एज॑त् । ध्रु॒वम् । मध्ये॑ । आ । प॒स्त्या᳡नाम् । जी॒व: । मृ॒तस्य॑ । च॒र॒ति॒ । स्व॒धाभि॑: । अम॑र्त्य: । मर्त्ये॑न । सऽयो॑नि: ॥१५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनच्छये तुरगातु जीवमेजद्ध्रुवं मध्य आ पस्त्यानाम्। जीवो मृतस्य चरति स्वधाभिरमर्त्यो मर्त्येना सयोनिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनत् । शये । तुरऽगातु । जीवम् । एजत् । ध्रुवम् । मध्ये । आ । पस्त्यानाम् । जीव: । मृतस्य । चरति । स्वधाभि: । अमर्त्य: । मर्त्येन । सऽयोनि: ॥१५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. यह जीव (पस्त्यानां मध्ये) = इन शरीररूप गृहों के बीच में (अनत्) = श्वासोच्छास की क्रिया को चलाता हुआ (आशये) = निवास करता है। प्राणों का कार्य तभी तक चलता है, जब तक इस शरीर में जीव का निवास है। (तुरगातु) = यह तूर्णगमन है-बड़ी तीव्रता से सब व्यापारों को करनेवाला है। एक ही सैकिण्ड में कितनी ही आकृतियों को देख जाता है। (जीवम) = इसी के कारण शरीर जीवनवाला कहाता है। यह गया और देह निर्जीव हुई। (एजत्) = यही सब अङ्ग प्रत्यङ्गों को गतिवाला करता है। इस प्राकृतिक अतएव जड़ शरीर में स्वयं गति नहीं। (ध्रुवम्) = यह आत्मा ध्रुव है। यह ध्रुव आत्मा ही इस पिण्ड को गतिमय बनाता है। २. (मृतस्य) = इस मृत त्यक्त-प्राण शरीर का (जीव:) = जिलानेवाला आत्मा (स्वधाभि:) = अपनी धारक शक्तियों के द्वारा चरति ब्रह्म के साथ इस वायु में विचरता है [अयं वै यमः योऽयं पवते]-यमलोक, अर्थात् वायुलोक में जाता है। यह (अमर्त्यः) = अमरणधर्मा होता हुआ भी (मयेन सयोनि:) = इस मर्त्य शरीर के साथ समान योनिवाला होता है। सामान्य भाषा में इसे 'पैदा होता हुआ और मरता हुआ' कह देते हैं।

    भावार्थ -

    इस शरीर के साथ होता हुआ यह जीव प्राण धारण करता हुआ, विविध अङ्ग प्रत्यङ्गों को गति देता हुआ शीघ्रता से कार्य करता है। मृत शरीर को छोड़कर यह अपनी धारण शक्तियों के साथ यमलोक [वायुलोक] में विचरता है।

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