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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 15
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    न वि जा॑नामि॒ यदि॑वे॒दमस्मि॑ नि॒ण्यः संन॑द्धो॒ मन॑सा चरामि। य॒दा माग॑न्प्रथम॒जा ऋ॒तस्यादिद्वा॒चो अ॑श्नुवे भा॒गम॒स्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । वि । जा॒ना॒मि॒ । यत्ऽइ॑व । इ॒दम् । अस्मि॑ । नि॒ण्य: । सम्ऽन॑ध्द: । मन॑सा । च॒रा॒मि॒ । य॒दा । मा॒ । आ॒ऽअग॑न् । प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । वा॒च: । अ॒श्नु॒वे॒ । भा॒गम् । अ॒स्या: ॥१५.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न वि जानामि यदिवेदमस्मि निण्यः संनद्धो मनसा चरामि। यदा मागन्प्रथमजा ऋतस्यादिद्वाचो अश्नुवे भागमस्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । वि । जानामि । यत्ऽइव । इदम् । अस्मि । निण्य: । सम्ऽनध्द: । मनसा । चरामि । यदा । मा । आऽअगन् । प्रथमऽजा: । ऋतस्य । आत् । इत् । वाच: । अश्नुवे । भागम् । अस्या: ॥१५.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 15

    पदार्थ -

    १. (यदि वा इदम् अस्मि) = 'मैं यह हूँ या कुछ और हूँ' इसप्रकार ठीक-ठीक अपने ही रूप को (न विजानामि) = मैं नहीं जानता। न जानने का कारण यह है कि मैं (निण्य:) = अन्तर्हित हूँ ढका हुआ-सा हूँ। ढके हुए होने का कारण यह है कि (मनसा) = मन से (सन्नद्धः) = सम्बद्ध होकर (चरामि) = मैं यहाँ संसार में विचर रहा हूँ। मन ने मुझे बुरी तरह से बाँधा हुआ है। २. (यदा) = जब कभी प्रभुकृपा से, सत्सङ्ग में श्रवण आदि के क्रम से (मा) = मुझे (जस्तस्य) = सब सत्य विद्याओं का प्रकाश करनेवाली (प्रथमजा:) = सृष्टि के प्रारम्भ में ऋषियों के हृदयों में प्रादुर्भूत हुई-हुई यह वेदवाणी (आगन्) = प्राप्त होती है, तब (आत् इत्) = उस समय अविलम्ब ही (अस्या:) = इस वेदवाणी से मैं (भागम्) = उस भजनीय आत्मज्ञान को (अश्नुवे) = प्राप्त कर लेता हूँ। वेदवाणी का सेवन मुझे सब व्यसनों से बचाकर मन की इस जकड़ से बचा लेता है।

     

    भावार्थ -

    मन के वशीभूत हुआ-हुआ मैं आत्मस्वरूप को ही विस्मृत-सा कर बैठा था। अब वेदवाणी के सेवन से व्यसनों से ऊपर उठकर, अन्तर्मुखी वृत्तिवाला बनकर आत्मदर्शन के योग्य हुआ हूँ।

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