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  • अथर्ववेद - काण्ड 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 21
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - पञ्चपदातिशक्वरी सूक्तम् - आत्मा सूक्त

    गौरिन्मि॑माय सलि॒लानि॒ तक्ष॑ती॒ एक॑पदी द्वि॒पदी॒ सा चतु॑ष्पदी। अ॒ष्टाप॑दी॒ नव॑पदी बभू॒वुषी॑ स॒हस्रा॑क्षरा॒ भुव॑नस्य प॒ङ्क्तिस्तस्याः॑ समु॒द्रा अधि॒ वि क्ष॑रन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    गौ: । इत् । मि॒मा॒य॒ । स॒लि॒लानि॑ । तक्ष॑ती । एक॑ऽपदी । द्वि॒ऽपदी॑ । सा । चतु॑:ऽपदी । अ॒ष्टाऽप॑दी । नव॑ऽपदी । ब॒भू॒वुषी॑ । स॒हस्र॑ऽअक्षरा । भुव॑नस्य । प॒ङ्क्ति: । तस्या॑: । स॒मु॒द्रा: । अधि॑ । वि । क्ष॒र॒न्ति॒ ॥१५.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    गौरिन्मिमाय सलिलानि तक्षती एकपदी द्विपदी सा चतुष्पदी। अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा भुवनस्य पङ्क्तिस्तस्याः समुद्रा अधि वि क्षरन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    गौ: । इत् । मिमाय । सलिलानि । तक्षती । एकऽपदी । द्विऽपदी । सा । चतु:ऽपदी । अष्टाऽपदी । नवऽपदी । बभूवुषी । सहस्रऽअक्षरा । भुवनस्य । पङ्क्ति: । तस्या: । समुद्रा: । अधि । वि । क्षरन्ति ॥१५.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 21

    पदार्थ -

    १. (गौ:) = वेदवाणी (इत) = निश्चय से (मिमाय) = शब्द करती है। यह वेदवाणी इन शब्दों के द्वारा (सलिलानि) = [सति लीनानि] सत् परमात्मा में लीन ज्ञानों को (तक्षती) = हमारे लिए बनानेवाली है। जब हम इन वेदवाणियों को पढ़ेंगे तब ये हमारे अन्दर ज्ञान का निर्माण करती हुई इन शब्दों का उच्चारण करेंगी। इसका एक-एक शब्द हमारे ज्ञान की वृद्धि का कारण बनेगा। (सा) = वह वेदवाणी (एकपदी) = [पद गतौ] उस अद्वितीय परमात्मा में गति-[ज्ञान]-वाली होती है-उस अद्वितीय प्रभु का वर्णन करती है। कभी (द्विपदी) = परमात्मा और जीवात्मा-दोनों का साथ-साथ ज्ञान देती है, ताकि उनकी तुलना ठीक रूप से हो जाए और जीव अपने आदर्श को समझ ले। यह वेदवाणी (चतुष्पदी) = जीव के पुरुषार्थभूत 'धर्मार्थ-काम-मोक्ष' चारों पुरुषार्थों का ज्ञान देती है। २. (अष्टापदी) = शरीरस्थ आठों चक्रों का ज्ञान देती हुई, इन चक्रों के विकास के लिए योग के अङ्गभूत 'यम-नियम' आदि आठों अङ्गों का प्रतिपादन करती है। (नवपदी बभूवुषी) = शरीरस्थ नव इन्द्रिय-द्वारों का ज्ञान देनेवाली होती हुई यह वेदवाणी (सहस्त्राक्षरा) = हजारों रूपों से उस प्रभु को व्याप्त करती है [अक्षर व्याप्ती]-अनेक रूपों में यह प्रभु का वर्णन करती है। (भुवनस्य पंक्ति:) = [पची विस्तारे] यह ब्रह्माण्ड को विस्तृत करती है-ब्रह्माण्ड का ज्ञान देती है। (तस्याः) = उस वेदवाणी से ही (समुद्राः अधि विक्षरन्ति) = ज्ञान के समुद्रों का प्रवाह चलता है।

    भावार्थ -

    वेदवाणी अद्वितीय प्रभु का वर्णन करती है। जीव व परमात्मा का तुलनात्मक चित्रण करती है। जीव के चारों पुरुषार्थों का प्रतिपादन करती है। शरीरस्थ आठों चक्रों व नौ इन्द्रिय-द्वारों का ज्ञान देती है। प्रभु तथा ब्रह्माण्ड का ज्ञान देती हुई यह ज्ञान के समुद्रों के प्रवाहवाली है।

     

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