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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
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    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॑ गृह्णामि॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। सवि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॑। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । अग्नये जुष्टङ्गृह्णागृह्णाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टङ्गृह्णामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। अग्नये। जुष्टम्। गृह्णामि। अग्नीषोमाभ्याम्। जुष्टम्। गृह्णामि॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 10
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    भावार्थ -

    हे अन्न आदि ग्राह्य पदार्थ ! ( त्वा ) तुझको ( देवस्य ) सर्वप्रदाता ( सवितुः ) सर्वप्रेरक , सर्व दिव्य पदार्थों के उत्पादक परमेश्वर या राजा के ( प्रसवे ) उत्पन्न किये इस संसार में या उसकी आज्ञा में रह कर ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) अश्वियों , स्त्री-पुरुषों या यज्ञसम्पादक विद्वानों या सूर्य और चन्द्र की बाहुओं अर्थात् ग्रहण करने वाले सामर्थ्यो द्वारा और ( पूष्णः ) पुष्टिकारक प्राण के ( हस्ताभ्याम् ) ग्रहण और विसर्जन करने के सामर्थ्यों द्वारा ( अग्नये जुष्टम् ) अग्नि अर्थात् जाठर अग्नि के सेवन करने योग्य और ( अग्नि-सोमाभ्याम्) अग्नि और सोम , अग्नि और जल इन द्वारा ( जुष्टम् ) सेवित , या सेवन करने योग्य सुपक्व अन्न को (गृह्णामि ) ग्रहण करूं । 
    राजा के पक्ष में-- अग्नि = राजा या क्षात्र बल और सोम = ब्राह्मण इन दोनों के अभिमत अन्न आदि पदार्थों को अश्वियों , स्त्री पुरुषों या राजा , ब्राह्मण विद्वानों के बाहुबल और पूषा अर्थात् पुष्टिकर भागदुघ् नामक करसंग्राहक अधिकारी के हस्तों , ग्रहण करने के सामर्थ्यों द्वारा सर्वप्रेरक ईश्वर के राज्य में ग्रहण करूं ॥ शत० १ । १ । २ । १७ ॥
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    अग्नीषोमौ सविता च देवताः । भुरिग् बृहती । मध्यमः स्वरः ॥ विष्णुर्देवता । द० ।

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